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अष्टमाध्यायस्य प्रथमः पादः
४१५ उदा०-नित्ये-पचति पचति । जल्पति जल्पति । भुक्त्वा भुक्त्वा व्रजति। भोजं भोजं व्रजति। लुनीहि लुनीहि इत्येवमयं लुनाति । वीप्सायाम्-ग्रामो ग्रामो रमणीय: । जनपदो जनपदो रमणीयः। पुरुष: पुरुषो निधनमुपैति।
केषु नित्यता ? तिक्षु अव्ययेषु कृत्सु च नित्यता भवति। कुत एतत् ? आभीक्ष्ण्यमिह नित्यता कथ्यते। आभीक्ष्ण्यं च क्रियाधर्मो वर्तते। कर्ता यां क्रियां प्राधान्येनाऽनुपरमन् सन् कुरुते तन्नित्यमित्युच्यते।
अथ केषु वीप्सा ? सुप्सु वीप्सा भवति। का पुनर्वीप्सा भवति ? प्रयोक्तुळप्तिविशेषविषया येच्छा सा वीप्सेत्यभिधीयते। नानावाचिनां द्रव्याणां क्रियागुणाभ्यां प्रयोक्तुर्युगपद्व्याप्तुमिच्छा वीप्सेत्याख्यायते।
आर्यभाषा: अर्थ-(नित्यवीप्सयो:) नित्य और वीप्सा अर्थ में जो शब्द है उस (सर्वस्य) सबको (a) द्विवचन होता है।
उदा०-नित्य-पचति पचति । वह पुन:-पुन: पकाता है। जल्पति जल्पति। वह पुन:-पुन: बकता है। भुक्त्वा भुक्त्वा व्रजति। वह पुन:-पुन: खाकर जाता है। भोज भोजं व्रजति । वह पुन:-पुन: खाता हुआ जाता है। वीप्सा-ग्रामो ग्रामो रमणीयः। इस हरयाणा प्रदेश का ग्राम-ग्राम सुन्दर है। जनपदो जनपदो रमणीयः । इस भारतवर्ष का जनपद-जनपद (प्रदेश) सुन्दर है। पुरुष: पुरुषो निधनमुपैति । जन-जन (प्रत्येक) मृत्यु को प्राप्त होता है।
सिद्धि-(१) पचति पचति । यहां नित्य अर्थ में इस सूत्र से पचति' शब्द को द्विवचन होता है। तस्य परमामेडितम् (८1१२) से परवर्ती 'पचति' शब्द की आमेडित-संज्ञा होकर अनुदात्तं च' (८।१।३) से इसे अनुदात्तस्वर होता है। ऐसे ही-जल्पति जल्पति।
(२) भुक्त्वा भुक्त्वा । यहां 'भुज पालनाभ्यवहारयोः' (रुधाआ०) धातु से समानकर्तृकयो: पूर्वकाले' (३।४।२१) से क्त्वा" प्रत्यय है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है।
(३) भोज भोजम् । यहां 'भुज' धातु से आभीक्ष्ण्ये णमुल् च' (३।४।२२) से आभीक्ष्ण्य-पुन: पुनर्भाव अर्थ में णमुल्' प्रत्यय है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही वीप्सा अर्थ में-ग्रामो ग्रामो रमणीय: आदि।
नित्यता धर्म किन शब्दों में रहता है ? तिङन्त, अव्यय और कृदन्त शब्दों में नित्यता धर्म रहता है। ऐसा क्यों है ? क्योंकि यहां नित्यता का अर्थ आभीक्ष्ण्य है और यह क्रिया का धर्म है। कर्ता जिस क्रिया को प्रमुख रूप में विराम रहित होकर करता है, उसे नित्य' कहते हैं।
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