SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 431
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-चौर चौर३ । यहां वाक्यादेरामन्त्रितस्य०' (८1१1८) से भर्त्सन-अर्थ में द्विर्वचन होता है। इससे परवर्ती अर्थात् द्वितीय चौर' शब्द की आमेडित संज्ञा होती है। 'आमेडितं भर्त्सने (८।२।९५) से आमेडित के टि-भाग (अ) को प्लुत होता है। ऐसे ही-वृषल वृषल३ । दस्यो दस्यो३ । अनुदात्तस्वर: (३) अनुदात्तं च।३। प०वि०-अनुदात्तम् १।१ च अव्ययपदम्। अनु०-आमेडितमित्यनुवर्तते। अन्वय:-आमेडितमनुदात्तं च। अर्थ:-यदाऽऽनेडितं शब्दरूपं तदनुदात्तं च भवति । उदा०-भुङ्क्ते भुङ्क्ते । पशून् पशून् । आर्यभाषा: अर्थ-(आमेडितम्) जो आमेडित-संज्ञक शब्द है वह (अनुदात्तम्) अनुदात्त (च) भी होता है। उदा०-भुङ्क्ते भुङ्क्ते । वह पुन:-पुन: खाता है। पशून् पशून् । सब पशुओं को, पशुमात्र को। सिद्धि-भुङ्क्ते भुङ्क्ते । यहां नित्यवीप्सयो:' (८।१।४) से नित्य अर्थ में 'भुङ्क्ते' शब्द को द्विवचन होता है। तस्य परमामेडितम्' (८।१।२) से परवर्ती 'भुङ्क्ते' शब्द की आमेडित संज्ञा है और इस सूत्र से इसे अनुदात्त स्वर होता है। ऐसे ही पशून् पशून् । यहां नित्यवीप्सयो:' (८।११४; से वीप्सा (व्याप्ति) अर्थ में द्विवचन होता है। सूत्रकार्य पूर्ववत् है। द्विवचनम् (४) नित्यवीप्सयोः ।४। प०वि०-नित्य-वीप्सयो: ७।२। स०-नित्यं च वीप्सा च ते नित्यवीप्से, तयो:-नित्यवीप्सयो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-सर्वस्य, द्वे इति चानुवर्तते। अन्वय:-नित्यवीप्सयो: सर्वस्य द्वे। अर्थ:-नित्ये वीप्सायां चार्थे य: शब्दस्तस्य सर्वस्य द्वे भवतः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy