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सप्तमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
४०३ (भ्वा०आ०) धातु से-जञ्जभ्यते, जञ्जभीति। दह भस्मीकरणे (भ्वा०प०) धातु से-दन्दह्यते, दन्दहीति। 'दशि दंशनदर्शनयोः' (चु०आ०) धातु से-दन्दश्यते, दन्दशीति। यह धातु सूत्रपाठ में दश' पठित है, अत: यङ्लुक में भी अनुनासिक का लोप होता है।
(२) बम्भज्यते। 'भञ्जो आमर्दने (रुधा०प०) धातु से पूर्ववत् । (३) पम्पश्यते। 'पश बन्धने (चु०३०)।
नुक-आगम:
(३०) चरफलोश्च।८७। प०वि०-चर-फलो: ६।२ च अव्ययपदम् ।
स०-चरश्च फल् च तौ चरफलौ, तयो:-चरफलो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-अङ्गस्य, अभ्यासस्य, यङ्लुकोः, अत:, नुगिति चानुवर्तते । अन्वय:-चरफलोरङ्गयोश्चाऽभ्यासस्याऽतो यङ्लुकोर्नु ।
अर्थ:-चरफलोरङ्गयोश्चाऽभ्यासस्याऽकारस्य यङि यङलुकि च परतो नुगागमो भवति।
उदा०-(चर) स चञ्चूर्यत, स चञ्चुरीति । (फल) स पम्फुल्यते, पम्फुलीति।
आर्यभाषा: अर्थ-(चरफलो:) चर, फल इन (अङ्गयो:) अगों के (अभ्यासस्य) अभ्यास के (अत:) अकार को (यङ्लुको:) यङ् प्रत्यय और यङ्लुक् परे होने पर (नुक्) नुक् आगम होता है।
उदा०-(चर) स चञ्चूर्यते, स चञ्चूरीति । वह निन्दित विधि से चलता है अथवा खाता है। (फल) स पम्फुल्यते, पम्फुलीति । वह पुन:-पुन: सफल होता है।
सिद्धि-(१) चञ्चूर्यते। यहां 'चर गतिभक्षणयोः' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् यङ्' प्रत्यय है। सन्यडोः' (६।१।९) से धातु को द्वित्व होता है-च-चुर्य। इस स्थिति में इस सूत्र से अभ्यास-अकार को नुक् आगम होता है। पूर्ववत् नकार को अनुस्वार और उसे परसवर्ण आदेश होता है। उत्परस्यात:' (७।४।८८) से अभ्यास से परवर्ती चर् के अकार को उकारादेश और इसे हलि च' (८।२।७७) से दीर्घ होता है। यङ्लुक् में-चञ्चुरीति। ऐसे ही फल निष्पत्तौ (भ्वा०प०) धातु से-पम्फुल्यते। यङ्लुक् में-पम्फुलीति।
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