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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(वञ्चु०) वञ्चु, स्रंसु, ध्वंसु, भंसु, कस, पत, पद, स्कन्द इन (अङ्गानाम्) अगों के (अभ्यासस्य) अभ्यास को (यङ्लुको:) यङ् प्रत्यय और यलुक् परे होने पर (नीक्) नीक् आगम होता है।
उदा०-उदाहरण और उनका भाषार्थ संस्कृत-भाग में लिखा है।
सिद्धि-(१) वनीवच्यते। यहां वञ्चु गतौ' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् यङ्' प्रत्यय है। सन्यडो:' (६।१।९) से धातु को द्वित्व होता है-व-वञ्च्य। इस स्थिति में इस सूत्र से अभ्यास को नीक' आगम होता है। 'अनिदितां हल उपधाया: क्डिति (६।४।२४) से अनुनासिक (न्) का लोप होता है। ऐसे ही यङ्लुक में-वनीवञ्चीति । यहां यङ् प्रत्यय का लुक हो जाने से अनिदितां हल उपधाया: क्डिति (६।४।२४) से अनुनासिक (न) का लोप नहीं होता है। प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणम्' (१।१।६२) से भी प्रत्ययलक्षण कार्य नहीं किया जा सकता है क्योंकि न लुमताऽङ्गस्य' (१।१।६३) अर्थात् लुमान् (लुक्-श्लु-लुप) के द्वारा किये गये प्रत्यय-लोप में प्रत्ययलक्षण कार्य नहीं होता है।
(२) सनीस्रस्यते। 'लंसु अवलंसने (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् । (३) दनीध्वंस्यते । 'ध्वंसु अवस्रंसने (भ्वा०आ०) । (४) बनीभ्रस्यते। 'भंसु अवलंसने' (भ्वा०आ०)। (५) चनीकस्यते। 'कस गतौ' (भ्वा०प०)। (६) पनीपत्यते। पत्तृ गतौ (भ्वा०प०)। (७) पनीपद्यते। ‘पद गतौ' (दि०आ०)।
(८) चनीस्कद्यते। स्कन्दिर (स्कन्द) (भ्वा०आ०)। नुक-आगम:
(२८) नुगतोऽनुनासिकान्तस्य।८५। प०वि०-नुक् १।१ अत: ११ अनुनासिकान्तस्य ६।१।
स०-अनुनासिकोऽन्ते यस्य तद् अनुनासिकान्तम्, तस्य-अनुनासिकान्तस्य (बहुव्रीहि:)।
अनु०-अङ्गस्य, अभ्यासस्य, यङ्लुकोरिति चानुवर्तते। अन्वय:-अनुनासिकान्तस्याऽङ्गस्याऽतोऽभ्यासस्य यङ्लुकोर्नु ।
अर्थ:-अनुनासिकान्तस्याऽङ्गस्याऽकारान्तस्याऽभ्यासस्य यङि यङ्लुकि च परतो नुगागमो भवति । उदाहरणम्
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