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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् इत्-आदेश:
(२३) ओः पुयणज्यपरे।८०। प०वि०-ओ: ६१ पुयण्जि ७।१ अपरे ७।१।
स०-पुश्च यण् च ज् च एतेषां समाहार: पुयण्ज्, तस्मिन्-पुयजि (समाहारद्वन्द्व:)। अ: परो यस्मात् स:-अपरः, तस्मिन्-अपरे (बहुव्रीहिः)।
अनु०-अङ्गस्य, अभ्यासस्य, इत्, सनीति चानुवर्तते। अन्वय:-अङ्गस्य ओरभ्यासस्याऽपरे पुयण्जि सनि इत् ।
अर्थ:-अङ्गस्य उकारान्तस्याऽभ्यासस्याऽवर्णपरके पवर्गे यणि जकारे च सति सनि प्रत्यये परत इकारादेशो भवति ।
उदा०-अवर्णपरके पवर्गे-स पिपविषते। स पिपावयिषति। स बिभावयिषति। अवर्णपरके यणि-स यियविषति। स यियावयिषति। स रिरावयिषति । स लिलावयिषति । अवर्णपरके जकारे-स जिजावयिषति । 'जु' इत्ययं सौत्रो धातुर्वर्तते ।
आर्यभाषा: अर्थ- (अगस्य) अङ्ग के (ओ:) उकारान्त (अभ्यासस्य) अभ्यास को (अपरे) अवर्ण-परक (पुयजि) पवर्ग, यण्-वर्ग और जकार परे होने पर (सनि) सन् प्रत्यय परे रहते (इत्) इकारादेश होता है।
उदा०-अवर्णपरक पवर्ग-स पिपविषते। वह पवित्र करना चाहता है। स पिपावयिषति। वह पवित्र कराना चाहता है। स बिभावयिषति। वह सत्ता में रखना चाहता है। अवर्णपरक यण्-स यियविषति । वह मिश्रण-अमिश्रण करना चाहता है। स यियावयिषति । वह मिश्रण-अमिश्रण कराना चाहता है। स रिरावयिषति। वह शब्द (शोर) कराना चाहता है। स लिलावयिषति। वह छेदन (कटाई) कराना चाहता है। अवर्णपरक जकार-स जिजावयिषति। वह गमन कराना चाहता है।
सिद्धि-(१) पिपविषते। यहां पूङ् पवने' (भ्वा०आo) धातु से 'धातोः कर्मण: समानकर्तकादिच्छायां वा' (३।११७) से सन्' प्रत्यय है। 'स्मिपूज्वशां सनि (७।२।७४) से सन्’ को इडागम होता है। पू+सन्। पू+इट्+स । पो+इ+स। पविष । इस स्थिति में- 'द्विवचनेऽचिं' (१।१।५९) से अजादेश (पव्) को स्थानिवत् मानकर 'पू' को द्विवचन होता है-पू-पविष । इस स्थिति में प्रथम 'हस्वः' (७।४।५९) से अभ्यास को ह्रस्वादेश होकर इस सूत्र से अवर्णपरक पवर्ग (प) परे होने पर अभ्यास-उकार को इकारादेश होता है। पि+पविष। पिपवष+लट्-पिपविषति।
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