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सप्तमाध्यायस्य चतुर्थः पादः (३) जजनत् । यहां जन जनने' (भ्वा०प०) धातु से लङ्' प्रत्यय, लकार के स्थान में तिप्' आदेश और कर्तरि शप्' (३।१।६८) से 'शप्' विकरण-प्रत्यय है। जुहोत्यादिभ्यः श्लुः' (२।४।७५) से 'शप' को 'श्लु' आदेश होता है। श्लौ' (६।१।१०) से जन्' धातु को द्वित्व होता है। बहुल-वचन से अभ्यास को इकारादेश नहीं होता है। बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपि (६।४।७५) से अडागम का अभाव है। ऐसे ही 'धन धान्ये (जु०प०) धातु से-दधनत्। इत्-आदेशः
(२२) सन्यतः ७६| प०वि०-सनि ७।१ अत: ६।१। अनु०-अङ्गस्य, अभ्यासस्य, इदिति चानुवर्तते। अन्वय:-अङ्गस्याऽतोभ्यासस्य सनि इत् ।
अर्थ:-अङ्गस्याऽकारान्तस्याऽभ्यासस्य सनि प्रत्यये परत इकारादेशो भवति।
उदा०-स पिपक्षति । स यियक्षति। स तिष्ठासति। स पिपासति ।
आर्यभाषा: अर्थ-(अङ्गस्य) अङ्ग के (अत:) अकारान्त (अभ्यासस्य) अभ्यास को (सनि) सन् प्रत्यय परे होने पर (इत्) इकारादेश होता है।
उदा०-स पिपक्षति। वह पकाना चाहता है। स यियक्षति। वह यज्ञ करना चाहता है। स तिष्ठासति। वह ठहरना चाहता है। स पिपासति। वह पान करना चाहता है।
सिद्धि-पिपक्षति। यहां डुपचष् पाके' (भ्वा०उ०) धातु से 'धातोः कर्मण: समानकर्तृकादिच्छायां वा' (३।१।७) से इच्छा-अर्थ में सन्' प्रत्यय है। ‘सन्यङो:' (६।१।९) से धातु को द्वित्व होता है-पच्स्-पच्स । प-पच्स । इस स्थिति में इस सूत्र से अकारान्त अभ्यास को इकारादेश होता है। चो: कुः' (८।२।३०) से चकार को ककार और 'आदेशप्रत्यययोः' (८।३।५९) से सकार को षकारादेश होता है। ऐसे ही यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु' (भ्वा० उ०) धातु से-यियक्षति । वश्चभ्रस्जयज०' (८।२।३६) से जकार को षकारादेश षढो: क: सिं' (८।२।४१) से षकार को ककारादेश और सकार को पूर्ववत् षत्व होता है। छा गतिनिवृत्तौ' (भ्वा०प०) धातु से-तिष्ठासति । 'पा पाने' (भ्वा०प०) धातु से-पिपासति।
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