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રૂ૬૧
सप्तमाध्यायस्य चतुर्थः पादः इस स्थिति में उरत् (७/४५६) से अभ्यास-ऋकार को अकारादेश होकर इस सूत्र से अभ्यास-अकार को इकारादेश होता है। अभ्यासे चर्च (८१४१५४) से अभ्यास-भकार को जश् बकार होता है। ऐसे ही 'माङ् माने शब्दे च' (जु०आ०) धातु से-मिमीते। ई हल्यद्यो:' ६।४।११३) से 'मा' के आकार को ईकारादेश होता है। 'ओहाङ् गतौ (जु०आ०) धातु से-जिहीते। 'हा' को पूर्ववत् ईकारादेश है। कुहोश्चुः' (७।४।६२) से अभ्यास-हकार को चवर्ग झकार और 'अभ्यासे चर्च (८।४।५४) से झकार को जश् जकार होता है। इत्-आदेश:
(२०) अतिपिपर्योश्च ७७। प०वि०-अर्ति-पिपयो: ६।२ च अव्ययपदम्।
स०-अर्तिश्च पिपर्तिश्च तौ अर्तिपिपर्ती, तयो:-अर्तिपिपयो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-अगस्य, अभ्यासस्य, श्लौ, इदिति चानुवर्तते । अन्वय:-अतिपिपोरङ्गयोऽभ्यासस्य च श्लौ इत् । अर्थ:-अतिपिपोरङ्गयोऽभ्यासस्य च श्लौ सति इकारादेशो भवति । उदा०-(अर्ति:) इयर्ति धूमम्। (पिपर्ति:) स पिपर्ति सोमम् ।
आर्यभाषा: अर्थ-(अतिपिपत्योः) अर्ति-ऋ और पिपर्ति= इन (अङ्गयो:) अगों के (अभ्यासस्य) अभ्यास को (च) भी (श्लौ) शप् को श्लु आदेश होने पर (इत्) इकारादेश होता है।
उदा०-(अर्ति) इयर्ति धूमम् । धूमां निकलता है। (पिपर्ति) स पिपर्ति सोमम् । वह सोम का पालन-पूरण करता है।
सिद्धि-(१) इयर्ति । यहां 'ऋ गतौ' (जु०प०) धातु से लट्' प्रत्यय और लकार के स्थान में तिप्' आदेश है। कर्तरि शप' (३।११६८) से 'शप्' विकरण-प्रत्यय और जुहोत्यादिभ्य: श्लः' (२।४।७५) से 'शप' को 'क्लु' (लोप) होता है। श्लौं' (६।१।१०) से धातु को द्वित्व होता है-ऋ-ऋ+o+ति। अर्-ऋ+ति। अ-ऋ+ति। इ-ऋ+ति। इयङ्-अ+ति। इय्-अर्+ति। इयर्ति। उरत्' (७१४।६६) से अभ्यास-ऋकार को अकारादेश और इस अकार को इस सूत्र से इकारादेश होकर 'अभ्यासस्यासवर्णे (६ ।४।७८) से इसे 'इयङ्' आदेश होता है। ऐसे ही पृ पालनपूरणयोः' (जु०प०) धातु से-पिपर्ति।
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