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________________ पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम् सिद्धि-नेनेक्ति। यहां 'णिजिर् शौचपोषणयो:' (जु०प०) धातु से 'लट्' प्रत्यय और लकार के स्थान में तिप्' आदेश है । 'कर्तरि शप्' (३ । १ । ६८) से शप् विकरण- प्रत्यय होता है उसको जुहोत्यादिभ्यः श्लुः' (२।४/७५) से श्लु (लोप) आदेश हो जाता है। 'श्लो' (६ 1१1१०) से धातु को द्वित्व होता है- निज्- निज्+०+ति । नि-निज्+ति । इस स्थिति में इस सूत्र से अभ्यास-इकार को गुण (ए) होता है। ऐसे ही विजिर् पृथग्भावे (जु०प०) धातु से - वेवेक्ति । विष्लृ व्याप्तौँ' धातु से - वेवेष्टि । इत्-आदेशः ३६० प०वि०- भृञाम् ६ । ३ इत् १ । १ । अनु०-अङ्गस्य, अभ्यासस्य, त्रयाणाम्, श्लाविति चानुवर्तते । अन्वयः-भृञां त्रयाणामऽङ्गानामभ्यासस्य श्लौ इत् । अर्थः-भृञादीनां त्रयाणामऽङ्गानामऽभ्यासस्य श्लौ सति इकारादेशो भवति । (१६) भृञामित् । ७६ । उदा०- (डुभृञ्) स बिभर्ति । (माङ् ) स मिमीते । (ओहाङ् ) स जिहीते । डुभृञ् धारणपोषणयोः (जु०उ० ) माङ् माने शब्दे च (जु०आ० ) ओहाङ् गतौ (जु०आ०) इत्येते त्रयो भृञादयो धातवः पाणिनीयधातुपाठस्य जुहोत्यादिगणे पठ्यन्ते। आर्यभाषाः अर्थ-(भृञाम्) भृञ् आदि (त्रयाणाम्) तीन (अङ्गानाम्) अङ्गों के (अभ्यासस्य) अभ्यास को (श्लौ) शप् को श्लु आदेश होने पर ( इत्) इकारादेश होता है। उदा०- (भृ) स बिभर्ति | वह धारण-पोषण करता है। (मा) समिमीते । वह मापता/शब्द करता है। (हा ) स जिहीते। वह गमन करता है। 'डुभृञ् धारणपोषणयो:' (जु०3०) इत्यादि तीन धातु पाणिनीय धातुपाठ के जुहोत्यादिगण में पठित हैं। सिद्धि-बिभर्ति। यहां डुभृञ् धारणपोषणयो:' (जु०3०) धातु से 'लट्' प्रत्यय और लकार के स्थान में तिप्' आदेश है । 'कर्तरि शप्' ( ३ | १/६८ ) से 'शप्' विकरण- प्रत्यय और 'जुहोत्यादिभ्यः श्लुः' (२/४/७५) से इसको श्लु (लोप) आदेश होता है। 'श्लौं' (६ 18 | १०) से धातु को द्वित्व होता है । भृ-भू+०+ति । भ- भर्+ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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