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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् होता है-वि+अश्-अश्+ए। वि+आ-अश्+ए। वि+आ नुट्+अश्+ए। वि+आन्+अश्+ए। व्यानशे। अत: आदे:' (७।४।७०) से अभ्यास को दीर्घ होता है। अश्' धातु के दो हल्वाली न होने से तस्मान्नुइ द्विहल:' (७।४।७१) से नुट् आगम प्राप्त नहीं था, अत: यह विधान किया गया है। आताम् प्रत्यय में-व्यानशाते। झ (इरेच्) प्रत्यय में-व्यानशिरे। अ-आदेशः
(१६) भवतेरः ७३। प०वि०-भवते: ६।१ अ: १।१।। अनु०-अङ्गस्य, अभ्यासस्य, लिटीति चानुवर्तते। अन्वय:-भवतेरङ्गस्याऽभ्यासस्य लिटि अ:।। अर्थ:-भवतेरमस्याऽभ्यासस्य लिटि प्रत्यये परतोऽकारादेशो भवति । उदा०-स बभूव । तौ बभूवतुः । ते बभूवुः । तेन अनुबभूवे।
आर्यभाषा: अर्थ-(भवते:) भवति-भू इस (अङ्गस्य) अग के (अभ्यासस्य) अभ्यास को (लिटि) लिट् प्रत्यय परे होने पर (अ.) अकारादेश होता है।
उदा०-स बभूव । वह हुआ। तौ बभूवतुः । वे दोनों हुये। ते बभूवुः । वे सब हुये। तेन अनुबभूवे। उसके द्वारा अनुभव किया गया।
सिद्धि-(१) बभूव । यहां भू सत्तायाम् (भ्वा०प०) धातु से लिट्' प्रत्यय, लकार के स्थान में 'तिप्' आदेश और तिप्' के स्थान में 'णल्' आदेश है। 'भुवो वुग् लुलिटो:' (६।४।८८) से 'भू' को 'वुक्' आगम होता है। लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।११८) से धातु को द्वित्व होता है-भूव-भूव+। भू-भूव+अ। इस स्थिति में ह्रस्व:' (७/४/५९) से अभ्यास (भू) को ह्रस्व होकर इस सूत्र से अभ्यास-उकार को अकारादेश होता है। 'अभ्यासे चर्च' (८।४।५४) से अभ्यास-भकार को जश् बकारादेश है। तस् (अतुस्) प्रत्यय में-बभूवतुः । झि (उस्) प्रत्यय में-बभूवुः ।।
(२) अनुबभूवे। यहां अनु-उपसर्गपूर्वक 'भू' धातु से कर्मवाच्य अर्थ में लिट्' प्रत्यय है। 'भावकर्मणोः' (१।३।१३) से कर्मवाच्य में आत्मनेपद होता है। अत: लकार के स्थान में 'त' आदेश और लिटस्तझयोरेशिरेच्' (३।४।८१) से त' के स्थान में 'एश्' आदेश है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। निपातनम्
(१७) ससूवेति निगमे।७४। प०वि०-ससूव क्रियापदम्, इति अव्ययपदम्, निगमे ७ १ । अनु०-अङ्गस्य, अभ्यासस्य, लिटि, अ इति चानुवर्तते।
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