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सप्तमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
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(२) नर्नर्ति | यहां 'नृती गात्रविक्षेपे' (दि०प०) धातु से पूर्ववत् 'यङ्' प्रत्यय और इसका लुक् होता है। पुनः यङ् लुगन्त धातु से 'लट्' प्रत्यय है। इस सूत्र से अभ्यास ऋकार को अकारादेश, इसे 'उरण् रपरः' (१1१148) से रपरत्व और हलादि: शेष:' ( ७/४/६०) से आदिम हलू शेष होकर 'रुग्रिकौ च लुकिं' (७/४1९१) से अभ्यास को रुक्' आगम होता है। रिक्-आगम पक्ष में- नरिनर्ति । रीक्-आगम पक्ष में- नरीनर्ति ।
सम्प्रसारणम्
(१०) द्युतिस्वाप्योः सम्प्रसारणम् । ६७ । प०वि० - द्युति - स्वाप्योः ६ । २ सम्प्रसारणम् १।१ । सo - द्युतिश्च स्वापिश्च तौ द्युतिस्वापी, तयो: - द्युतिस्वाप्योः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
अनु०-अङ्गस्य, अभ्यासस्येति चानुवर्तते ।
अन्वयः -द्युतिस्वाप्योरङ्गयोरभ्यासस्य सम्प्रसारणम् । अर्थ:-द्युतिस्वाप्योरङ्गयोरभ्यासस्य सम्प्रसारणं भवति ।
उदा०- ( द्युतिः) लिट् स विदिद्युते । लुङ् (चङ् ) स व्यदिद्युतत् । सन् - विदिद्योतिषते विदिद्युतिषते । यङ् - विदेद्युत्यते । (स्वापिः ) स
,
सुष्वापयिषति ।
आर्यभाषाः अर्थ- (द्युतिस्वाप्योः) द्युति, स्वापि इन (अङ्गयोः) अङ्गों के (अभ्यासस्य) अभ्यास को (सम्प्रसारणम्) सम्प्रसारण होता है ।
उदा०- ( द्युति) लिट् स विदिद्युते। वह प्रकाशित (प्रसिद्ध ) हुआ। लुङ् (चङ्) स व्यदिद्युतत् । वह प्रकाशित हुआ । सन्-विदिद्योतिषते विदिद्युतिषते । वह प्रकाशित होना चाहता है। (यङ्) विदेद्युत्यते । वह पुन: पुन: / अधिक प्रकाशित होता है। (स्वापि ) स सुष्वापयिषति । वह सुलाना चाहता है।
सिद्धि - (१) विदिद्युते। यहां वि-उपसर्गपूर्वक धुत दीप्तों (भ्वा०आ०) धातु से 'लिट्' प्रत्यय, लकार के स्थान में 'त' आदेश और 'लिटस्तझयोरेशिरेच्' (३/४/८१) से 'त' के स्थान में 'एश्' आदेश है। 'लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१।८) से धातु को द्वित्व होता है। विद्युत् द्युत्+ए। वि+द् इ उ द्युत्+ए । वि+दि द्युत्+ए। विदिद्युते। इस सूत्र से अभ्यास-यकार को इकार सम्प्रसारण और 'सम्प्रसारणाच्च' (६ 1१1८) से उकार को पूर्वरूप एकादेश (इ) होता है।
(२) व्यदिद्युतत् । यहां वि-उपसर्गपूर्वक 'द्युत्' धातु से प्रथम हेतुमति चं' (३।१।२६ ) से 'णिच्' प्रत्यय, पुनः णिजन्त द्योति' धातु से 'लुङ्', 'णिश्रिदुस्रुभ्यः कर्तरि
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