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पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचनम्
(१५) वरीवृजत् । यहां 'वृत्री वर्जने' (रुधा०प०) धातु से पूर्ववत् 'शतृ' प्रत्यय और 'शप्' को 'श्लु' आदेश है । अभ्यास को 'रीक्' आगम निपातित है।
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(१६) मर्मृज्य । यहां 'मृजूष शुद्धौं' (अदा०प०) धातु से परोक्षे लिट् ' (३ ।२ ।११५) से 'लिट्' प्रत्यय, लकार के स्थान में तिप्' आदेश और 'तिप्' के स्थान में 'ण' आदेश है। अभ्यास को 'रुक्' आगम और धातु को 'युक्' आगम निपातित है। 'युक्' आगम होने पर 'मृजेर्वृद्धि:' ( ७ । २ । ११४ ) से प्राप्त वृद्धि नहीं होती है।
(१७) आगनीगन्ति । यहां आङ् - उपसर्गपूर्वक 'गम्लृ गतौं' (भ्वा०प०) धातु से 'लट्' प्रत्यय और 'शप्' विकरण- प्रत्यय है । पूर्ववत् 'शप्' को 'श्लु' होता है। अभ्यास को 'कुहोश्चु:' (७/४/६२) से प्राप्त चुत्व का अभाव और 'नीक्' आगम निपातित है। आ+ग नीक्- गम्+ति । आ+ग नी- गन्+ति। आगनीगन्ति । 'गम्' के मकार को 'मोऽनुस्वारः ' (८ 1३ 1 २३) से अनुस्वारादेश और इसे 'अनुस्वारस्य ययि परसवर्ण:' (८/४/५७) से परसवर्ण नकार होता है।
अत्-आदेशः
(६) उरत् ।६६।
प०वि० उ: ६ । १ अत् १ । १ । अनु०-अङ्गस्य, अभ्यासस्येति चानुवर्तते।
अन्वयः-उरङ्गस्याऽभ्यासस्याऽत् । अर्थ:-उ:=ऋकारान्तस्याऽङ्गस्याऽभ्यासस्याऽकारादेशो भवति । उदा० - स ववृते । स ववृधे । स शशृधे । सा ननर्ति । सा नरिनर्ति । सा नरीनर्ति ।
आर्यभाषाः अर्थ- ( उ ) ऋकारान्त (अङ्गस्य ) अङ्ग के ( अभ्यासस्य) अभ्यास को (अत्) अकारादेश होता है।
उदा०-स ववृते। उसने वर्ताव (व्यवहार) किया । स ववृधे | उसने वृद्धि की । स शशृधे। उसने निन्दित शब्द किया । सा ननर्ति । सा नरिनर्ति । सा नरीनर्ति । वह पुन: पुन: / अधिक नाचती है।
सिद्धि - (१) ववृते । यहां 'वृतु वर्तने' (भ्वा०आ०) धातु से लिट्' प्रत्यय, लकार के स्थान 'त' आदेश और 'लिटस्तझयोरेशिरेच्' (३ । ४।८१) से 'त' के स्थान में 'एश्' आदेश है । 'लिटि धातोरनभ्यासस्य' ( ६ | १ |८) से धातु को द्वित्व होता है- वृत्-वृत्+ए । वृ-वृत्+ए। इस सूत्र से अभ्यास ऋकार को अकार आदेश होता है। ऐसे ही 'वृधु वृद्ध' (भ्वा०आ०) धातु से ववृधे । शृधु शब्दकुत्सायाम्' (भ्वा०आ०) धातु से - शशृधे ।
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