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सप्तमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
३८१ (७) संसनिष्यदत् । यहां सम्-उपसर्गपूर्वक स्यन्दू प्रस्रवणे (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् यङ्' प्रत्यय और इसका लुक् है। पुन: यङ्लुगन्त धातु से पूर्ववत् 'शतृ' प्रत्यय है। सम्+स-स्यन्द्+शतृ। सम्+निक्-ष्यद्+अत्। संसनिष्यदत्। अभ्यास को निक्' आगम
और धातस्थ सकार को षत्व निपातित है। अनिदितां हल उपधाया: क्डिति (६।४।२४) से अनुनासिक (न्) का लोप होता है।
(८) करिक्रत। यहां डुकृञ करणे (तनाउ०) धातु से पूर्ववत् यङ्' प्रत्यय और इसका लुक् होता है। पुन: यङ्लुगन्त धातु से पूर्ववत् शतृ प्रत्यय है। कृ-कृ+शतृ । कर+कृ+अत् । क रिक्-कृ+अत् । करि+कृ+अत् । करिक्रत् । अभ्यास को रिक्' आगम और 'कुहोश्चुः' (७।४।६२) से प्राप्त चुत्व का अभाव निपातित है।
(९) कनिक्रदत। यहां क्रदि आहाने रोदने च' (भ्वा०प०) धातु से लुङ्' प्रत्यय, च्लि' के स्थान में अड्' आदेश, धातु को द्वित्व, अभ्यास को चुत्व का अभाव और निक' आगम निपातित है।
(१०) भरिभ्रत् । यहां 'डुभृज धारणपोषणयोः' (जु०उ०) धातु से पूर्ववत् यङ्' प्रत्यय और इसका लुक् है। पुनः यङ्लुगन्त धातु से पूर्ववत् 'शतृ' प्रत्यय है। अभ्यास को रिक्’ आगम निपातित है। 'अभ्यासे चर्च (८।४।५४) प्राप्त अभ्यास-जश्त्व का अभाव और 'भृञामित्' (७।४।७६) से प्राप्त अभ्यास को इत्त्व का अभाव भी निपातित है।
(११) दविध्वतः । यहां 'वृ हिंसायाम् (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् यङ् प्रत्यय और इसका लुक् है। पुन: यङ्लुगन्त धातु से पूर्ववत् शतृ' प्रत्यय है। अभ्यास को विक्' आगम और 'ध्वृ' धातु के ऋकार का लोप निपातित है। उगिदचां सर्वनामस्थानेधातो:' (७।११७०) से प्राप्त नुम्' आगम का नाभ्यस्ताच्छतुः' (७।१।७८) से प्रतिषेध होता है। यह षष्ठी-एकवचन (डस्) का रूप है।
(१२) दविद्युतत् । यहां 'द्युत दीप्तौ' (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् यङ् प्रत्यय और इसका लुक है। पुन: यङ्लुगन्त धातु से पूर्ववत् शतृ' प्रत्यय है। द्युतिस्वाप्योः सम्प्रसारणम् (७/४/६७) से प्राप्त अभ्यास के सम्प्रसारण का अभाव, अभ्यास को अत्व और विक्' आगम निपातित है। द्युत्-द्युत्+शतृ। दु+द्युत्+अत् । द विक्+द्युत्+अत्। द वि-द्युत्+ अत्-दविद्युतत्।
(१३) तरित्रत: । यहां तु प्लवनसन्तरणयोः' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'शतृ' प्रत्यय और 'शप्' को 'श्लु' आदेश है। श्लौ(६।१।१०) से धातु को द्वित्व, उरत् (७।४।६६) से अभ्यास-ऋकार को अकारादेश और अभ्यास को रिक्’ आगम निपातित है। यह षष्ठी एकवचन (डस्) का रूप है।
(१४) सरीसृपतम् । यहां सृप्लु गतौ' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् शतृ' प्रत्यय और 'शप्' को 'श्लु' आदेश है। अभ्यास को रीक्' आगम निपातित है। यह द्वितीया-एकवचन (अम्) का रूप है।
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