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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
अथवा - पूर्वोक्त 'धृञ्' आदि धातुओं से यहां प्रथम पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय है। इन धातुओं के णिजन्त में अनेकाच् होने से 'धातोरेकाचो हलादे: क्रियासमभिहारे यङ् -' (३ 1१ 1२२ ) से 'यङ्' प्रत्यय प्राप्त नहीं है, अत: यह निपातन से होता है । उपधा ह्रस्वत्व भी निपातित है। 'बहुलं छन्दसि' (२।४।७६ ) से 'यङ्' का लुक् होता है। 'णेरनिटि' (६/४/५१) से णिच् का लोप और 'दीर्घोऽकित:' ( ७/४/८३) से अभ्यास को दीर्घ होता है।
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(२) दर्धर्ति। यहां पूर्वोक्त 'धृञ्' आदि धातुओं से पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय और 'शप्' को 'श्लु' आदेश है । अभ्यास को 'रुक्' आगम और णिच्' प्रत्यय का लोप निपातन से होता है। 'सिप्' प्रत्यय में- दर्धर्षि । यङ्लुक् पक्ष में 'दीर्घोऽकित:' ( ७/४/८३) प्राप्त अभ्यास दीर्घत्व का अभाव निपातित है।
(३) बोभूतु । यहां 'भू सत्तायाम्' धातु से प्रथम पूर्ववत् 'यङ्' प्रत्यय और इसका लुक् है। 'लोट् च' (३ । ३ । १६२ ) से 'लोट्' प्रत्यय, लकार के स्थान में तिप्' आदेश और 'एरु:' (३।४।८६) से इकार को उकार आदेश है। 'चर्करितं च' (अदादि गणसूत्र ) से यङ्लुगन्त धातु अदादिगण के अन्तर्गत होती है। अतः 'अदिप्रभृतिभ्यः शप:' ( २/४ /७२ ) से 'शप्' का लुक् होता है। 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' ( ७ | ३ |८४) से प्राप्त इत लक्षण गुण का अभाव निपातित है।
(४) तेतिक्ते । यहां 'तिज निशानें' (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् 'यङ्' प्रत्यय और इसका लुक् होता है । यङ् के ङित् होने से 'अनुदात्तङित आत्मनेपदम् (१।३।१२ ) से आत्मनेपद सिद्ध है, पुन: आत्मनेपद निपातन से यह ज्ञापक होता है कि अन्यत्र यङ् लुगन्त धातु से आत्मनेपद नहीं होता है। 'चोः कुः' (८ / २ / ३० ) से 'तिज्' के जकार को कवर्ग गकार और 'खरि च' (८/४ 1५४ ) से गकार को चर् ककार होता है।
(५) अलर्षि। यहां 'ऋ गतौं' (जु०प०) धातु से 'लट्' प्रत्यय और लकार के स्थान में 'सिप्' आदेश है । 'जुहोत्यादिभ्यः श्लुः' (२।४/७५) से शप् को श्लु और 'श्लो' (६ 1१1११) से धातु को द्वित्व होता है । ऋ ऋ+सि। 'उरत्' (७१४/६६) से अभ्यास - ऋकार को अकारादेश, 'उरण् रपरः' (१1१1५१) से रपरत्व (अर्) होता है । इस अभ्यास के रेफ को निपातन से लत्व होता है। हलादिः शेष:' (७/४/६०) से आदिहल् का शेषत्व नहीं होता है। 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' ( ७ । ३ । ८४) से 'ऋ' को गुण 'और 'आदेशप्रत्यययो:' ( ८1३1५९) से षत्व होता है । 'अर्तिपिपर्त्योश्च' (७।४।७७) से प्राप्त अभ्यास को इत्व निपातन से नहीं होता है।
(६) आपनीफणत्। यहां आङ् उपसर्गपूर्वक 'फण गतौं' धातु से पूर्ववत् 'यङ्’ प्रत्यय और इसका लुक् होता है । पुनः यङ्लुगन्त धातु से 'लट्' प्रत्यय और 'लट: शतृशानचा०' (३।२।१२४) से 'लट्' के स्थान में 'शतृ' आदेश है। आ+प-पण्+शतृ । आ+प नीक्-फण्+अत् । आपनीफणत्। इस सूत्र से अभ्यास को 'नीक्' आगम निपातित है।
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