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________________ ३७६ सप्तमाध्यायस्य चतुर्थः पादः शब्द: उदाहरणम् भाषार्थ: (१०) करिक्रदत् । करिक्रदत् वह आह्वान/रोदन करता हुआ। (ऋ० ११२८१३) (११) भरिभ्रत् भरिभ्रत्व ह पुन:-पुन:/अधिक धारण-पोषण (ऋ० १० १४५ १७) करता हुआ। (१२) दविध्वत: | दविध्वतो रश्मय: सूर्यस्य नष्ट करनेवाले की। ऋ० ४।१३।४) (१३) दविद्युतत् । दविद्युतत् | वह पुन:-पुन:/अधिक प्रदीप्त होता (ऋ० ६।१६ ।४५) हुआ। (१४) तरित्रतः । | सहोर्जा तरित्रतः उस पुन:-पुन:/अधिक तैरते हुये का। (ऋ० ४।४०१३) (१५) सरीसृपतम् सरीसृपतम् उस पुन:-पुन:/अधिक सर्पण करनेवाले को। (१६) वरीवृजत् । वरीवृजत् वह पुन:-पुन:/अधिक वर्जन (ऋ० ७।२४।४) / (निषेध) करता हुआ। (१७) मर्मृज्य मर्मृज्य उसने पुन:-पुन:/अधिक शुद्धि की। (१८) आगनीगन्ति वक्ष्यन्ती वेदा- वे आगमन करते हैं, आते हैं। गनीगन्ति कर्णम् (ऋ० ६।७५ ॥३) आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (दाधर्ति०) दाधर्ति, दर्धर्ति, दर्षि बोभूतु, तेतिक्ते, अलर्षि, आपनीफणत्, संसनिष्यदत्, करिक्रत्, कनिक्रदत्, भरिभ्रत्, दविध्वत:, दविद्युतत्. तरित्रत:, सरीसृपतम्, वरीवृजत्, मर्मूज्य, आगनीगन्ति (इति) ये अठारह शब्द (च) भी निपातित हैं। उदा०-उदाहरण और उनका भाषार्थ संस्कृत-भाग में लिखा है। सिद्धि-(१) दाधर्ति । यहां 'धृ धारणे' (भ्वा०उ०), 'धृङ् अवस्थाने' (तु०आ०), 'धृङ् अवध्वंसने' (भ्वा०आ०) इन धातुओं से प्रथम हेतुमति च' (३।१।३६) से णिच्' प्रत्यय है। कर्तरि शप' (३।११६८) से शप् विकरण-प्रत्यय और 'बहुलं छन्दसि (२।४।७३) से 'शप्' को श्लु और श्लौ' (६।१।१०) से धातु को द्वित्व होता है। निपातन से णिच् का लोप और अभ्यास को दीर्घ होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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