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सप्तमाध्यायस्य चतुर्थः पादः शब्द: उदाहरणम् भाषार्थ: (१०) करिक्रदत् । करिक्रदत् वह आह्वान/रोदन करता हुआ।
(ऋ० ११२८१३) (११) भरिभ्रत् भरिभ्रत्व
ह पुन:-पुन:/अधिक धारण-पोषण (ऋ० १० १४५ १७) करता हुआ। (१२) दविध्वत: | दविध्वतो रश्मय: सूर्यस्य नष्ट करनेवाले की।
ऋ० ४।१३।४) (१३) दविद्युतत् । दविद्युतत् | वह पुन:-पुन:/अधिक प्रदीप्त होता
(ऋ० ६।१६ ।४५) हुआ। (१४) तरित्रतः । | सहोर्जा तरित्रतः उस पुन:-पुन:/अधिक तैरते हुये का।
(ऋ० ४।४०१३) (१५) सरीसृपतम् सरीसृपतम् उस पुन:-पुन:/अधिक सर्पण
करनेवाले को। (१६) वरीवृजत् । वरीवृजत् वह पुन:-पुन:/अधिक वर्जन
(ऋ० ७।२४।४) / (निषेध) करता हुआ। (१७) मर्मृज्य मर्मृज्य उसने पुन:-पुन:/अधिक शुद्धि की। (१८) आगनीगन्ति वक्ष्यन्ती वेदा- वे आगमन करते हैं, आते हैं।
गनीगन्ति कर्णम्
(ऋ० ६।७५ ॥३) आर्यभाषा: अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (दाधर्ति०) दाधर्ति, दर्धर्ति, दर्षि बोभूतु, तेतिक्ते, अलर्षि, आपनीफणत्, संसनिष्यदत्, करिक्रत्, कनिक्रदत्, भरिभ्रत्, दविध्वत:, दविद्युतत्. तरित्रत:, सरीसृपतम्, वरीवृजत्, मर्मूज्य, आगनीगन्ति (इति) ये अठारह शब्द (च) भी निपातित हैं।
उदा०-उदाहरण और उनका भाषार्थ संस्कृत-भाग में लिखा है।
सिद्धि-(१) दाधर्ति । यहां 'धृ धारणे' (भ्वा०उ०), 'धृङ् अवस्थाने' (तु०आ०), 'धृङ् अवध्वंसने' (भ्वा०आ०) इन धातुओं से प्रथम हेतुमति च' (३।१।३६) से णिच्' प्रत्यय है। कर्तरि शप' (३।११६८) से शप् विकरण-प्रत्यय और 'बहुलं छन्दसि (२।४।७३) से 'शप्' को श्लु और श्लौ' (६।१।१०) से धातु को द्वित्व होता है। निपातन से णिच् का लोप और अभ्यास को दीर्घ होता है।
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