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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
चङ्' (३।१।४८) से 'च्लि' के स्थान में 'चङ्' आदेश, 'णेरनिटिं' (६/४/५१) से णिच् का लोप, ' चडन्युपधाया ह्रस्व:' (७।४।१) से उपधा को ह्रस्व, 'चङि' (६ 1१1११) से धातु को द्वित्व होता है। इस सूत्र से अभ्यास- यकार को सम्प्रसारण और पूर्ववत् पूर्वरूप एकादेश होता है।
(३) विदिद्युतिषते । यहां वि-उपसर्गपूर्वक 'द्युत्' धातु से 'सन्' प्रत्यय है। 'रलो व्युपधाद्धलादेः सँश्च' (१।२।२६ ) से 'सन्' प्रत्यय विकल्प से किदुवत् होता है। कित्त्व - पक्ष में 'क्ङिति च ' (१1१14 ) से लघूपधलक्षण गुण का प्रतिषेध होता है। 'सन्यङो:' ( ६ 1१1९ ) से धातु को द्वित्व और इस सूत्र से अभ्यास- यकार को सम्प्रसारण होता है। विकल्प - पक्ष में 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७।३।८६ ) से लघूपधलक्षण गुण होता है-विदिद्योतिषते ।
(४) विदेद्युत्यते। यहां वि-उपसर्गपूर्वक 'द्युत्' धातु से 'धातोरेकाचो हलादे: क्रियासमभिहारे यङ्' (३।१।२२ ) से 'यङ्' प्रत्यय है । 'सन्यङो:' ( ६ | 1९ ) से को द्वित्व होता है। इस सूत्र से अभ्यास- यकार को सम्प्रसारण इकारादेश होकर 'गुणो यङ्लुको:' (७।४।८२) से अभ्यास (इ) को गुण (ए) होता है।
(५) सुस्वापयिषति । यहां प्रथम 'ञिष्वप् शये' (अदा०प०) धातु से हेतुमति च' (३ | १ | २६ ) से णिच्' प्रत्यय है । पुनः णिजन्त 'स्वापि' धातु से 'सन्' प्रत्यय है। 'सन्यङो:' (६।१।९) से धातु को द्वित्व करते समय 'णौ कृतं स्थानिवद् भवति' (महा० १/१/५७ ) से अद्विर्वचन निमित्तक णिच् के अच् (इ) परे होने पर भी रूपातिदेश होकर द्वित्व होता है - स्वप्-स्वापि । इस सूत्र से अभ्यास - वकार को उकार सम्प्रसारण और 'सम्प्रसारणाच्च' (६ |१| १०८ ) से अकार को पूर्वरूप एकादेश ( उ ) होता है । 'आदेशप्रत्यययोः' (८1३1५९ ) से षत्व होता है । 'सुष्वापयिष' णिजन्त पूर्वक सनन्त धातु से 'लट्' प्रत्यय है । स्तौतिण्योरेव षण्यभ्यासात्' (८1३ 1६१) से अभ्यास- इण् से उत्तर आदेश- सकार को षत्व होता है।
सम्प्रसारणम्
(११) व्यथो लिटि । ६८ ।
प०वि० - व्यथः ६ । १ लिटि ७ । १ ।
अनु०-अङ्गस्य, अभ्यासस्य, सम्प्रसारणमिति चानुवर्तते । अन्वयः - व्यथोऽङ्गस्याऽभ्यासस्य लिटि सम्प्रसारणम् । अर्थः-व्यथोऽङ्गस्याऽभ्यासस्य लिटि प्रत्यये परतः सम्प्रसारणं भवति । उदा० - स विव्यथे । तौ विव्यथा । ते विव्यथिरे ।
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