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________________ ३७४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (३) अडुढौकत् । यहां प्रथम ढौकृ' धातु से हेतुमति च' (३।१।२६) से णिच्' प्रत्यय और पश्चात् णिजन्त ढौकि' धातु से 'लुङ्' प्रत्यय है। णिश्रिदुस्रुभ्य: कर्तरि चङ् (३।१।४८) से च्लि' के स्थान में 'चङ्' आदेश है। 'चडि' (६।१।१२) से धातु को द्वित्व होता है। अभ्यास-कार्य पूर्ववत् है। आदिहलः शेषत्वम् (३) हलादिः शेषः ।६०। प०वि०-हल् १।१ आदि: १।१ शेष: १।१। अनु०-अङ्गस्य, अभ्यासस्येत्यनुवर्तते। अन्वय:-अङ्गस्याऽभ्यासस्याऽऽदिर्हल् शेषः । अर्थ:-अङ्गस्याऽभ्यासस्याऽऽदिर्हल् शेषो भवति, अन्यो हल् च लुप्यते। उदा०-स जग्लौ। स मम्लौ। स पपाच । स पपाठ। आट, आटतुः, आटुः। आर्यभाषा: अर्थ-(अङ्गस्य) अङ्ग के (अभ्यासस्य) अभ्यास का (आदि:) आदिम (हल) हल् वर्ण (शेष:) शेष रहता है और अन्य हलमात्र का लोप हो जाता है। उदा०-स जग्लौ। उसने ग्लानि की। स मम्लौ। उसने ग्लानि की। स पपाच । उसने पकाया। स पपाठ। उसने पढ़ा। आट । उसने अटन (भ्रमण) किया। आटतुः । उन दोनों ने अटन किया। आटुः। उन सब ने अटन किया। अटन भ्रमण। सिद्धि-जालौ । यहां ग्लै हर्षक्षये (भ्वा०प०) धातु से परोक्षे लिट् (३।२।११५) से लिट्' प्रत्यय है। तिपतस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में 'तिप्' आदेश, 'परस्मैपदानां णल०' (३।४।८२) से तिप्' के स्थान में 'णल' आदेश और 'आत औ णल:' (७।१।३४) से 'णल्' के स्थान में 'औ' आदेश है। लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१८) से धातु को द्वित्व होता है-ग्ला-ग्ला+अ। इस सूत्र से अभ्यास का आदिम हल 'ग्' शेष रहता है अन्य हल् (ल) का लोप हो जाता है। आ अच्’ शेष रहा रहता है। गा-ग्ला+अ। इस स्थिति में 'हस्वः' (७।४।५९) से अभ्यास को ह्रस्व (ग) होता है। कुहोश्चुः' (७।४।६२) से अभ्यास-गकार को चवर्ग जकारादेश होता है। ‘म्लै हर्षक्षये' (भ्वा०प०) धातु से-मम्ले। ऐसे ही डुपचष् पाके' (भ्वा० उ०) धातु से-पपाच । 'पठ व्यक्तायां वाचिं' (भ्वा०प०) धातु से-पपाठ। 'अट गतौ (भ्वा०प०) धातु से-आट, आटतुः, आटुः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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