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सप्तमाध्यायस्य चतुर्थः पादः उदा०-स मित्सति। मोक्षते वत्स: स्वयमेव ।
आर्यभाषा: अर्थ-(अत्र) यहां अर्थात् सनि मीमाधुरभलभशकपतपदमच इस (७।४।५४) से लेकर मुचोऽकर्मकस्य गुणों वा' (७।४।५७) इस सूत्र तक (अगस्य) अङ्ग के (अभ्यासस्य) अभ्यास का (लोप:) लोप होता है।
__उदा०-स मित्सति। वह मांपना चाहता है। मोक्षते वत्स: स्वयमेव इत्यादि उदाहरण हैं।
सिद्धि-मित्सति आदि पदों की सिद्धि उक्त प्रकरण में यथास्थान लिखी गई है। उनमें अभ्यास का लोप स्पष्ट है। ह्रस्वादेशः
(२) हस्वः ।५६। वि०-ह्रस्व: १।१। अनु०-अङ्गस्य, अभ्यासस्येति चानुवर्तते। अन्वय:-अङ्गस्याऽभ्यासस्य ह्रस्व: । अर्थ:-अङ्गस्याऽभ्यासस्य ह्रस्वादेशो भवति ।
उदा०-स डुढौकिषते। स तुत्रौकिषते। स डुढौके । स तुत्रौके । सोऽडुढौकत् । सोऽतुत्रौकत्।
__ आर्यभाषा: अर्थ-(अङ्गस्य) अङ्ग के (अभ्यासस्य) अभ्यास को (हस्व:) हस्वादेश होता है।
उदा०-स डुढौकिषते । वह गमन करना चाहता है। स तुत्रौकिषते। वह गमन करना चाहता है। स डुढौके। उसने गमन किया। स तुत्रौके। उसने गमन किया। सोडुढौकत् । उसने गमन कराया। सोऽतुत्रौकत् । उसने गमन कराया।
सिद्धि-(१) डुढौकिषते । यहां ढौकृ गतौ' (भ्वा०आ०) धातु से 'धातोः कर्मण: समानकर्तृकादिच्छायां वा' (३।१।७) से इच्छा-अर्थ में 'सन्' प्रत्यय है। 'सन्यडो:' (६।१।९) से धातु को द्वित्व होता है। पूर्वोऽभ्यास:' (६।१।४) से द्विरुक्त में पूर्वभाग की अभ्यास संज्ञा है। इस सूत्र से अभ्यास (ढौक्स्) को ह्रस्वादेश होता है-दुक्स। हलादि शेष: (७।४।६०) से अभ्यास का आदि हल् (दु) शेष रहकर अभ्यासे चर्च (८।४।५४) से अभ्यास के झल् ढकार को जश् डकारादेश होता है। ऐसे ही श्रीकृ गतौं' (भ्वा०आ०) धातु से-तुत्रौकिषते।
(२) डुढौके । यहां ढौकृ गतौ (भ्वा०आ०) धातु से परोक्षे लिट् (३।२।११५) से लिट्' प्रत्यय है। लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।११८) से धातु को द्वित्व होता है। अभ्यास-कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही नौकृ' धातु से-तुत्रौके ।
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