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सप्तमाध्यायस्य चतुर्थः पादः अनु०-अङ्गस्य, लोप इति चानुवर्तते। अन्वय:-दीधीवेव्योरङ्गयोसैवर्णयोर्लोपः ।
अर्थ:-दीधीवेव्योरङ्गयोर्यकारादाविकारादौ च प्रत्यये परतो लोपो भवति।
उदा०-(दीधी) यकारादौ-आदीध्य गत: । आदीध्यते । इकारादौआदीधिता। आदीधीत। विवी) यकारादौ-आवेव्य गतः। आवेव्यते। इकारादौ-आवेविता। आवेवीत।
आर्यभाषा: अर्थ-(दीधीवेव्योः) दीधी, वेवी इन (अङ्गस्योः) अगों का (यीवर्णयोः) यकारादि और इकारादि प्रत्यय परे होने पर (लोप:) लोप होता है।
उदा०-(दीधी) यकारादि में-आदीध्य गतः । वह प्रसिद्ध होकर गया। आदीध्यते। उसके द्वारा प्रसिद्ध हुआ जाता है। इकारादि में-आदीधिता। प्रसिद्ध होनेवाला । आदीधीत। वह प्रसिद्ध होवे। विवी) यकारादि में-आवेव्य गतः । वह आकर गया। आवेव्यते। उसके द्वारा आया जाता है। इकारादि में-आवेविता। आनेवाला। आवेवीत । वह आये।
सिद्धि-(१) आदीध्य । यहां आङ्-उपसर्गपूर्वक दीधीङ् दीप्तिदेवनयो:' (अदा०आ०) धातु से समानकर्तकयो: पूर्वकाले' (३।४।२१) से क्त्वा' प्रत्यय और इसके स्थान में समासेऽनपूर्वे क्त्वो ल्यप् (७।१।३७) से ल्यप्' आदेश है। इस सूत्र से दीधी' के ईकार का यकारादि ल्यप् (य) प्रत्यय परे होने पर लोप होता है। ऐसे ही वेवीङ् वेतिना तुल्ये' (अदा०आ०) धातु से-आवेव्य।
(२) आदीध्यते। यहां आङ्-उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त दीधी' धातु से भाव-अर्थ में लट्' प्रत्यय है। सार्वधातुके यक्' (३।१।६७) से यक्’ विकरण-प्रत्यय होता है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही पूर्वोक्त वेवी' धातु से-आवेव्यते ।
(३) आदीधिता। यहां आङ्-उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त दीधी धातु से 'गुवुल्तृचौ' (३।१।१३३) से तृच्' प्रत्यय है। 'आर्धधातुकस्येड्वलादे:' (७।२।३५) से तृच्’ को इडागम होता है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही पूर्वोक्त वेवी' धातु से-आवेविता ।
(४) आदीधीत । यहां आङ्-उपसर्गपूर्वक दीधी' धातु से विधिनिमन्त्रणा०' (३।३।१६१) से लिङ्' प्रत्यय है। तिप्तसझि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में त' आदेश है। लिङ: सीयुट्' (३।४।१०२) से सीयुट्' आगम और सुट् तिथो:' (३।४।१०७) से त' को सुट आगम होता है। लिङ: सलोपोऽनन्त्यस्य' (७/२/७९) से सकारों का लोप होता है। इस सूत्र से दीधी के ईकार का इकारादि ईय्' (सीयुटु) प्रत्यय परे होने पर लोप होता है। ऐसे ही वेवी' धातु से-आवेवीत ।
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