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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (६।४।७६) से 'इरेच्’ के स्थान में र’ आदेश होता है। इस सूत्र से 'अस्' के सकार का रेफादि रे' प्रत्यय परे होने पर लोप होता है। श्नसोरल्लोप:' (६।४।१११) से 'अस्' के अकार का भी लोप हो जाता है। ह-आदेश:
(३२) ह एति।५२। प०वि०-ह: ११ एति ७।१।
अनु०-अङ्गस्य, सः, तासस्त्योरिति चानुवर्तते। लोप इति च नानुवर्तनीयम्।
अन्वय:-तासस्त्योरङ्गयोः स एति हः।
अर्थ:-तासेरस्तेश्चाङ्गस्य सकारस्य स्थाने एकारादौ प्रत्यये परतो हकारादेशो भवति।
उदा०-अहं कतहि । अहं सुखं व्यतिहे।
आर्यभाषा: अर्थ- (तासस्त्योः) तास् और अस्ति अस् इस (अगस्य) अङ्ग के (स:) सकार के स्थान में (एति) एकारादि प्रत्यय परे होने पर (ह:) हकारादेश होता है।
उदा०-अहं कहि । मैं कल करूंगा। अहं सुखं व्यतिहे । मैं परस्पर सुखपूर्वक रहा।
सिद्धि-(१) कतहि । यहां 'डुकृञ करणे (तना०उ०) धातु से पूर्ववत् लुट्' प्रत्यय है। 'तिपतस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में 'इट' (उत्तमपुरुष एकवचन) आदेश है। टित आत्मनेपदानां टेरे' (३।४।७९) से 'इट' के टि-भाग (इ) को एकारादेश होता है। 'स्यतासी लुलुटो:' (३।१।३३) से 'तास्' विकरण-प्रत्यय है। इस सूत्र से तास्' के सकार को एकारादि 'ए' प्रत्यय परे होने पर हकारादेश होता है।
(२) व्यतिहे। यहां वि+अति उपसर्गपूर्वक 'अस भुवि' (अदा०प०) धातु से परोक्षे लिट्' (३।२।११५) से 'लिट्' प्रत्यय है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। ‘श्नसोरल्लोप:' (६।४।१११) से 'अस्' के अकार का भी लोप हो जाता है। लोपादेशः
(३३) यीवर्णयोर्दीधीवेव्योः ।५३। प०वि०-यि-इवर्णयो: ७।२ दीधी-वेव्योः ६।२।
स०-यिश्च इवर्णश्च तौ यीवी, तयो:-यीवर्णयो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । यकारे इकार उच्चारणार्थ: । दीधीश्च वेवीश्च तौ दीधीवेव्यौ, तयो:-दीर्घवव्यो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
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