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सप्तमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
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(३/४/८०) से 'थास्' को से' आदेश होता है। इस सूत्र से 'अस्' के सकार का, सकारादि से' प्रत्यय परे होने पर लोप होता है । 'इनसोरल्लोप:' ( ६ |४।१११) से 'अस्' के अकार का भी लोप हो जाता है । कर्तरि कर्मव्यतिहारे (१।३।१४ ) से आत्मनेपद होता है । पूर्ववत् 'श' का लुक् होता है।
सकारलोपः
प०वि० - रि ७ । १ च अव्ययपदम् ।
अनु०-अङ्गस्य, सः, तासस्त्योः, लोप इति चानुवर्तते । अन्वयः - तासस्त्योरङ्गयोः सो रि च लोपः ।
अर्थ :- तासेरस्तेश्चाङ्गस्य सकारस्य रेफादौ प्रत्यये परतश्च लोपो
भवति ।
(३१) रि च । ५१ ।
उदा०-(तास्) कर्तारौ, कर्तारः । अध्येतारौ, अध्येतारः । ( अस्ति ) अस्-ते सुखं व्यतिरे ।
आर्यभाषाः अर्थ- ( तासस्त्योः) तास् और अस्ति =अस् इस (अङ्ग्ङ्गस्य) अङ्ग के (सः) सकार का (रि) रेफादि प्रत्यय परे होने पर (च) भी (लोपः) लोप होता है। - (तास) कर्तारौ । वे दोनों कल करेंगे । कर्तार: । वे सब कल करेंगे। अध्येतारौ । वे दोनों कल पढ़ेंगे। अध्येतारः । वे सब कल पढ़ेंगे। (अस्ति) अस्-ते सुखं व्यतिरे। वे परस्पर सुखपूर्वक रहे ।
उदा०
सिद्धि - (१) कर्तारौ । यहां 'डुकृञ् करणे' (तना० उ०) धातु से 'अनद्यतने लुट् (३।३।१५) से 'लुट्' प्रत्यय है । 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में 'तस्' आदेश और 'लुट: प्रथमस्य डारौरसः ' (२/४/८५ ) से 'तस्' के स्थान में 'रौ' आदेश है । 'स्यतासी लृलुटो:' (३ | १ । ३३) से तासि विकरण प्रत्यय होता है। इस सूत्र से 'तास्' के सकार का रेफादि 'रौ' प्रत्यय परे होने पर लोप होता है। ऐसे ही झि (रस्) प्रत्यय में- कर्तारः । ऐसे ही नित्य अधि-पूर्वक 'इङ् अध्ययने' (अदा०आ०) धातु सेअध्येतारौ, अध्येतारः ।
(२) व्यतिरे । व्यति+अस्+लिट् । व्यति+अस्+झ । व्यति+अस्+इरेच् । व्यति+अस्+रे । व्यति+अ०+ रे । व्यति+0+ रे । व्यतिरे ।
यहां वि+अतिपूर्वक 'अस भुवि' (अदा०प०) धातु से 'परोक्षे लिट्' (३ । २ । ११५ ) से 'लिट्' प्रत्यय है । तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में 'झ' आदेश, 'लिटस्तझोरेशिरेच्' (३।४ । ८१ ) से 'झ' के स्थान में 'इरेच्' आदेश और 'इरयो रें
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