________________
३५२
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा: अर्थ-(अशनायोदन्यधनाया:) अशनाय, उदन्य, धानाय ये शब्द (क्यचि) क्यच् प्रत्यय परे होने पर यथासंख्य (बुभुक्षापिपासासागर्धेषु) बुभुक्षा, पिपासा, गर्ध अर्थों में निपातित है। उदाहरण
(१) अशनाय-अशनायति । उसे बुभुक्षा है। बुभुक्षा=भोक्तुमिच्छा। खाने की इच्छा। बुभुक्षा अर्थ से अन्यत्र-अशनीयति । वह अशन (भोजन) चाहता है। यहां 'अशन' शब्द को क्यच्' प्रत्यय परे होने पर आकरादेश निपातित है।
(२) उदन्य-उदन्यति । उसे पिपासा है। पातुमिच्छा=पिपासा। पीने की इच्छा। पिपासा से अन्यत्र-उदकीयति। वह उदक जल चाहता है। उदक' शब्द को क्यच्' प्रत्यय परे होने पर उदन्-आदेश निपातित है।
(३) धनाय-धनीयति । वह गर्ध (लालच) करता है। गर्ध से अन्यत्र-धनीयति। वह धन चाहता है। 'धन' शब्द को क्यच्' प्रत्यय परे होने पर आकारादेश निपातित है।
सिद्धि-अशनायति आदि शब्दों में सुप आत्मन: क्यच् (३।१८) से क्यच्' प्रत्यय है। निपातन-कार्य उपरिलिखित है। उक्तप्रतिषेधः
(१५) न च्छन्दस्यपुत्रस्य ।३५ । प०वि०-न अव्ययपदम्, छन्दसि ७ ।१ अपुत्रस्य ६।१ । स०-न पुत्र इति अपुत्रः, तस्य-अपुत्रस्य (नञ्तत्पुरुष:)। अनु०-अङ्गस्य, अस्य, क्यचि, इति चानुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि अपुत्रस्याऽस्याङ्गस्य क्यचि न।
अर्थ:-छन्दसि विषये पुत्रवर्जितस्याऽकारान्तस्याऽङ्गस्य क्यचि परतो यदुक्तं तन्न भवति । किं चोक्तम् ? दीर्घत्वम्, ईत्वं च ।
उदा०-मित्रयुः (मै०सं० २।६।१२)। स स्वेदयुः (मै०सं० ४।१२।२)। देवाजिगाति सुम्नयु: (ऋ० ३।२७।१)।
आर्यभाषा: अर्थ- (छन्दसि) वेदविषय में (अपुत्रस्य) पुत्र शब्द को छोड़कर (अस्य) अकारान्त (अङ्गस्य) अङ्ग को (क्यचि) क्यच् प्रत्यय परे होने पर (न) जो कहा गया है, वह नहीं होता है। क्या कहा गया है ? दीर्घ और ईकारादेश।
उदा०-मित्रयुः (मै०सं० २।६।१२) । मित्रयु:=अपने मित्रों की इच्छा करनेवाला पुरुष। स स्वेदयुः (मै०सं० ४।१२।२)। स्वदेयु:-पुरुषार्थ की इच्छा करनेवाला पुरुष। देवाजिगाति सुम्नयुः (ऋ० ३।२७।१)। सुम्नयु:=अपने सुम्न-मोक्षसुख की इच्छा करनेवाला पुरुष।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org