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सप्तमाध्यायस्य प्रथमः पादः अर्थ:-नपुंसकाद् अङ्गाद् उत्तरस्य च औङ: प्रत्ययस्य स्थाने शी-आदेशो भवति।
उदा०-कुण्डे तिष्ठतः । त्वं कुण्डे पश्य । दधिनी। मधुनी। त्रपुणी। जतुनी।
आर्यभाषा: अर्थ-(नपुंसकात्) नपुंसक (अङ्गात्) अङ्ग से परे (च) भी (औङ:) औ और औट् (प्रत्ययस्य) प्रत्यय के स्थान में (शी) शी-आदेश होता है।
उदा०-कुण्डे तिष्ठतः। दो कुण्ड हैं। त्वं कुण्डे पश्य। तू कुण्डों को देख। दधिनी। दो दही। मधुनी। दो मधु । पुणी। दो वपु (सीसा, रांगा)। जतुनी। दो जतु (गोंद, लाख, शिलाजीत)।
सिद्धि-(१) कुण्डे । कुण्ड+औ। कुण्ड+शी। कुण्ड+ई। कुण्डे ।
यहां नपुंसकलिङ् कुण्ड' शब्द से स्वौजस०' (४।१।२) से 'औ' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'औ' के स्थान में शी-आदेश होता है। ऐसे ही 'औट' प्रत्यय करने पर भी-कुण्डे । यहां यस्येति च' (६।४।१४८) से अग के अकार का लोप प्राप्त होता है किन्तु वा०-श्यां प्रतिषेधो वक्तव्यः' अकार-लोप का प्रतिषेध हो जाता है।
(२) दधिनी। दधि+औ। दधि+शी। दधि+ई। दधि+तुम्+ई। दधि+न्+ई। दधिनी।
यहां नपुंसकलिङ्ग 'दधि' शब्द से पूर्ववत् 'औ' प्रत्यय है। इस सूत्र से औ' के स्थान में 'शी' आदेश होता है। नपुंसकस्य झलच:' (७।१।७२) से तुम्' आगम है। ऐसे ही 'औट्' प्रत्यय करने पर भी-दधिनी। ऐसे ही 'मधु' शब्द से-मधुनी। 'पु' शब्द से-पुणी। 'जतु' शब्द से-जतुनी। शि-आदेशः
(२०) जश्शसोः शिः।२०। प०वि०-जश्-शसो: ६।२ शि: १।१।।
स०-जस् च शस् च तौ जश्शसौ, तयोः-जश्शसो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-अङ्गस्य, प्रत्ययस्य, नपुंसकाद् इति चानुवर्तते। अन्वय:-नपुंसकाद् अङ्गाज्जश्शसो: प्रत्यययो: शिः।
अर्थ:-नपुंसकाद् अङ्गाद् उत्तरयोर्जश्शसो: प्रत्यययो: स्थाने शिरादेशो भवति।
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