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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
उदा०-खट्वे तिष्ठतः । त्वं खट्वे पश्य । बहुराजे | कारीषगन्ध्ये । औङ इत्यत्र ङकारः सामान्यग्रहणार्थ:, येन औटोऽपि ग्रहणं यथा
स्यात् ।
आर्यभाषाः अर्थ-(आप) आप जिसके अन्त में है, उस (अङ्गात्) अङ्ग से परे (औङ: ) औ और औट् (प्रत्ययस्य) प्रत्यय के स्थान में (शी) शी- आदेश होता है। उदा० - खट्वे तिष्ठतः । दो खाट हैं। त्वं खट्वे पश्य । तू दो खाटों को देख । बहुराजे | बहुत राजाओंवाली दो स्त्रियों ने / को। कारीषगन्ध्ये । दो कारीषगन्ध्याओं ने/को।
सिद्धि - (१) खट्वे । खट्वा+औ। खट्वा+शी। खट्वा+ई। खट्वे ।
यहां आबन्त 'खट्वा' शब्द से 'स्वौजस० ' ( ४ | १/२ ) से 'औ' प्रत्यय है । इस सूत्र से 'औ' के स्थान में 'शी' आदेश होता है। 'आद्गुण:' ( ६ |१।८६ ) से गुणरूप एकादेश (अ+ई= ए) है। ऐसे ही 'और' (212) प्रत्यय करने पर भी - खट्वे ।
यहां 'औङ्' में ङकार अनुबन्ध सामान्य ग्रहण करने के लिये है । इससे 'औं' (१/२) तथा 'और' (२/२) इन दोनों प्रत्ययों का ग्रहण किया जाता है। क्योंकि पूर्वाचार्यों ने इन दोनों प्रत्ययों को 'और' ही पढ़ा है।
(२) बहुराजे । यहां प्रथम 'बहुराजन्' शब्द से स्त्रीलिङ्ग में 'डाबुभाभ्यामन्यतरस्याम्' (४।१।१३) से 'डाप्' प्रत्यय है । तत्पश्चात् 'बहुराजा' शब्द से पूर्ववत् 'औ' और 'और' प्रत्यय है ।
(३) कारीषगन्ध्ये | 'करीषस्येव गन्धोऽस्येति - करीषगन्धिः' (बहुव्रीहिः) । यहां प्रथम 'उपमानाच्च' (५/४/१७३ ) से समासान्त इच्' प्रत्यय है । करीषगन्धेरपत्यं स्त्री- कारीषगन्ध्या । यहां 'करीषगन्धि' शब्द से 'तस्यापत्यम्' से अपत्य-अर्थ (स्त्री) में 'अण्' प्रत्यय और उसके स्थान में 'अणिञोरनार्षयोर्गुरूपोत्तमयोः ष्यङ् गोत्रे (४ 1१1७८) से 'ष्यङ्' आदेश होता है और पुनः स्त्रीत्व-विवक्षा में 'यङश्चाप्' (४/१/७४) से 'चाप्' प्रत्यय है। 'आप्’ इस सामान्य ववन से 'टाप्', 'डाप्' और 'चाप्' प्रत्ययों का ग्रहण किया जाता है। आन्त कारीषगन्ध्या शब्द से पूर्ववत् 'औ' और 'और' प्रत्यय है 1 शी- आदेश:
(१६) नपुंसकाच्च | १६ | प०वि० - नपुंसकात् ५ ।१ च अव्ययपदम् ।
अनु०-अङ्गस्य, प्रत्ययस्य, शी:, औङ इति चानुवर्तते । अन्वयः-नपुंसकाद् अङ्गाच्च औङ: प्रत्ययस्य शीः ।
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