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________________ ३३७ सप्तमाध्यायस्य चतुर्थः पादः स०-ऋश्च दृश् च एतयोः समाहार ऋदृश्, तस्य-ऋदृश: (समाहारद्वन्द्वः)। अनु०-अङ्गस्य इत्यनुवर्तते। अन्वय:-ऋदृशोऽङ्गस्याऽङि गुणः । अर्थ:-ऋकारान्तस्य दृशेश्चाऽमस्याऽङि प्रत्यये परतो गुणो भवति। उदा०-(ऋकारान्त:) शकलाऽङ्गुष्ठकोऽकरत्। अहं तेभ्योऽकरं नम: (यजु० १६।८)। सोऽसरत् । आरत्। जरा। (दृशि:) अदर्शत्, अदर्शताम्, अदर्शन्। आर्यभाषा: अर्थ-(ऋदृश:) ऋकारान्त और दृश् इस (अगस्य) अग को (अडि) अङ् प्रत्यय परे होने पर (गुण:) गुण होता है। उदा०-(ऋकारान्त) शकलाऽङ्गुष्ठकोऽकरत् । अकरत् उसने किया। अहं तेभ्योऽकरं नम: (यजु० १६१८)। अकरम्=मैंने किया। सोऽसरत् । उसने गति की। आरत् । उसने गति की। जरा। वयोहानि (बुढ़ापा)। (दशि) अदर्शत् । उसने देखा। अदर्शताम् । उन दोनों ने देखा। अदर्शन् । उन सबने देखा। सिद्धि-अकरत् । यहां डुकृञ् करणे (तना० उ०) धातु से लुङ् (३।२।११०) से लुङ्' प्रत्यय है। कमदहिभ्यश्छन्दसि' (३।११५९) से लि' के स्थान में 'अङ्' आदेश होता है। इस सूत्र से ऋकारान्त 'कृ' धातु को 'अड्' प्रत्यय परे होने पर गुण (अर्) होता है। क्डिति च' (११११५) से गुण प्रतिषेध प्राप्त था। ऐसे ही स गतौ (भ्वा०प०) धातु से-असरत् । ऋ गतिप्रापणयो:' (भ्वा०प०) धातु से-आरत् । यहां सर्तिशास्त्यर्तिभ्यश्च (३।११५६) से चिल' के स्थान में 'अङ्' आदेश होता है। ऋ' धातु के अजादि होने से आडजादीनाम्' (६।४।७२) से आट्-आगम और आटश्च (६।१।९०) से वृद्धिरूप एकादेश होता है। दृशिर् प्रेक्षणे (भ्वा०प०) धातु से-अदर्शत । यहां इरितो वा' (३।१।५७) से चिल' के स्थान में 'अङ्' आदेश होता है। (२) जरा । जु+अङ्। ज् अ+अ। ज+टाप् । जस्+आ। जरा+सु । जरा। __ यहां जृष् वयोहानौं' (भ्वा०प०) धातु से षिद्भिदादिभ्योऽङ् (३।३।१०४) से स्त्रीलिङ्ग में अङ् प्रत्यय है। इस सूत्र से ऋकारान्त जृ' धातु को अङ् प्रत्यय परे होने पर गुण होता है। स्त्रीत्व-विवक्षा में अजाद्यतष्टाप' (४।१।४) से टाप्' प्रत्यय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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