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सप्तमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
३३३ 'परस्मैपदानां णलतुसुस्०' (३।४।८२) से तस्' को अतुस्' आदेश है। इस सूत्र से इस संयोगादि, ऋकारान्त स्वृ' धातु को 'अतुस्' प्रत्यय परे होने पर गुण (अर्) होता है। उरत्' (७।४।६६) से अभ्यास-ऋकार को अकारादेश होता है। ऐसे ही झि (उस्) प्रत्यय में-सस्वरु: । 'असंयोगाल्लिट् कित्' (१।२।५) से लिट् (तस्) प्रत्यय के कित् होने से डिति च' (१।१५) से गुण का प्रतिषेध प्राप्त था, अत: यह गुण विधान किया गया है। ऐसे ही 'बू हुर्छने' (भ्वा०प०) धातु से-दध्वरतुः, दध्वरुः । स्मृ चिन्तायाम् (भ्वा०प०) धातु से-सस्मरतुः, सस्मरुः । गुणादेशः
(११)ऋच्छत्यताम्।११। प०वि०-ऋच्छति-ऋ-ऋताम् ६।३।
स०-ऋच्छतिश्च ऋश्च ऋच्च ते ऋच्छत्यृत:, तेषाम्-ऋच्छत्यृताम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-अङ्गस्य, लिटि, गुण इति चानुवर्तते । अन्वय:-ऋच्छत्यृतामऽङ्गानां लिटि गुणः ।
अर्थ:-ऋच्छते; इत्येतस्य ऋकारान्तस्य चाऽङ्गस्य लिटि प्रत्यये परतो गुणो भवति।
उदा०-(ऋच्छति:) आनछे, आनछुतु:, आनछुः । (ऋ) आरतुः, आरुः। (ऋकारान्त:) निचकरतु:, निचकरुः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(ऋच्छत्यृताम्) ऋच्छति, ऋ और ऋकारान्त (अङ्गस्य) अम को (लिटि) लिट् प्रत्यय परे होने पर (गुण:) गुण होता है।
उदा०-(ऋच्छति) आनछे। वह गया। आनछेतुः । वे दोनों गये। आनच्छुः । वे सब गये। (ऋ) आरतुः। वे दोनों गये। आरुः । वे सब गये। (ऋकारान्त) कृ-निचकरतुः । उन दोनों ने विक्षेप किया, फैंका। निचकरुः । उन सबने विक्षेप किया।
सिद्धि-आनछे। ऋच्छ्+लिट् । ऋच्छ+ल् । ऋच्छ्+तिम्। ऋच्छ+णल् । अछ+अ । अठ्ठ-अच्छ+अ । अ-अच्छ+अ। आ-अच्छ+अ। आ नुट्-अठ्ठ+अ। आ न्अछ+अ। आनछ।
यहां 'ऋच्छ गतौ' (तु०प०) धातु से 'परोक्षे लिट्' (३।२।११५) से लिट्' प्रत्यय है। तिपतस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में 'तिप्' आदेश और 'परस्मैपदानां णलतुसुस्०' (३।४।८२) से णल् आदेश है। इस सूत्र से ऋच्छ्' को लिट् (णल्) प्रत्यय परे होने पर गुण होता है। तत्पश्चात् लिटि धातोरनभ्यासस्य (६।१।८) से 'अच्छु'
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