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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-अवदिये । अव+दा+लिट् । अव+दा+ल। अव+दिग्+त । अव+दिग्+एश् । अव+दिग्+ए। अवदिये।
यहां अव-उपसर्गपूर्वक देङ रक्षणे (भ्वा०आ०) धातु से परोक्षे लिट्' (३।२।११५) से लिट्' प्रत्यय है। इस सूत्र से देङ् (दयति) के स्थान में दिगि आदेश होता है। दिगि-आदेश विधान से द्विवचन का बाधन अभीष्ट है, अत: लिटि धातोरनभ्यासस्य (६।१।८) से दिगि' को द्वित्व नहीं होता है। अनुदात्तडित आत्मनेपदम्' (१।३।११) से आत्मनेपद और लिटस्तझयोरेशिरेच्' (३।४।८१) से त' को 'एश्' आदेश होता है। आताम् प्रत्यय में-अवदिग्याते, 'झ' प्रत्यय में-अवदिग्यिरे। गुणादेश:
(१०) ऋतश्च संयोगादेर्गुणः।१०। प०वि०-ऋत: ६१ च अव्ययपदम्, संयोगादे: ६१ गुण: १।१। स०-संयोग आदिर्यस्य स संयोगादिः, तस्य-संयोगादे: (बहुव्रीहि:)। अनु०-अङ्गस्य, लिटीति चानुवर्तते। अन्वय:-संयोगादेब्रतोऽङ्गस्य च लिटि गुण: ।
अर्थ:-संयोगादेब्रकारान्तस्याऽङ्गस्य च लिटि प्रत्यये परतो गुणो भवति।
उदा०- (स्वृ) तौ सस्वरतुः । ते सस्वरु: । (वृ) तौ दध्वरतुः । ते दध्वरुः। (स्मृ) तौ सस्मरतुः । ते सस्मरु: ।
आर्यभाषा: अर्थ-(ऋत:) ऋकार जिसके अन्त में है उस (संयोगादे:) संयोग आदिवाले (अङ्गस्य) अग को (लिटि) लिट् प्रत्यय परे होने पर (गुण:) गुण होता है।
उदा०-(स्व) तौ सस्वरतुः । उन दोनों ने शब्द/उपताप किया। ते सस्वरुः । उन सब ने शब्द/उपताप किया। (ध्व) तौ दध्वरतुः । उन दोनों ने कुटिलता की। ते दध्वरुः । उन सब ने कुटिलता की। (स्म) तौ सस्मरतुः। उन दोनों ने स्मरण किया। ते सस्मरुः। उन सब ने स्मरण किया।
सिद्धि-सस्वरतुः । स्व+लिट् । स्व+ल। स्वृ+तस्। स्वृ+अतुस्। स्व-स्व+अतुस् । स् अ+स्वर्+अतुस् । सस्वरतुस् । सस्वरतुः ।
यहां स्व शब्दोपतापयोः' (भ्वा०प०) धातु से 'परोक्षे लिट्' (३।२।११५) से 'लिट्' प्रत्यय है। तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में तस्' आदेश और
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