________________
३३०
ऋकारादेश:
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
(७) उर्ऋत् ॥७॥
प०वि० उ: ६ । १ ऋत् १ । १ ।
अनु०-अङ्गस्य, णौ, चङि, उपधाया, वा इति चानुवर्तते । अन्वयः - उरङ्गस्योपधायाश्चङि णौ वा णित् ।
अर्थः-उ:-ऋकारान्तस्याऽङ्गस्योपधाया: स्थाने चङ्परके णौ प्रत्यये परतो विकल्पेन ऋकारादेशो भवति । इर् - अर्-आरामपवादः ।
उदा०-(इर्) अचिकीर्तत्, अचीकृतत् । (अर्) अववर्तत्, अवीवृतत् । (आर्) अममार्जत्, अमीमृजत् ।
आर्यभाषाः अर्थ- (उ) ऋकार जिसके अन्त में है उस (अङ्ग्ङ्गस्य) अङ्ग की (उपधायाः) उपधा के स्थान में (चङि) चङ्परक (णौ) णिच् प्रत्यय परे होने पर (वा) विकल्प से (ऋत्) ऋकारादेश होता है। यह इर्, अर् आर् आदेशों का अपवाद है।
उदा०- - (इर्) अचिकीर्तत्, अचीकृतत् । उसने प्रसिद्ध कराया। (अर्) अववर्तत्, अवीवृतत्। उसने चमकाया। (आर्) अममार्जत्, अमीमृजत् । उसने शुद्धि कराई।
सिद्धि - (१) अचिकीर्तत् । यहां प्रथम कृत संशब्दने' (चु०3०) धातु से प्रथम 'सत्यापपाश०' (३।१।२५) से चौरादिक णिच्' प्रत्यय होता है। 'उपधायाश्च' (७ 1१1१०१) से 'कृत्' धातु के उपधा-ॠकार को इकारादेश, 'उरण् रपरः' (१1१14१) से रपरत्व और 'हलि च' (८ 1२ 1७७ ) से इसे दीर्घ होता है । तत्पश्चात् णिजन्त 'कीर्ति' धातु से पूर्ववत् 'लुङ्' प्रत्यय और 'च्लि' के स्थान में 'चङ्' आदेश होता है। इस सूत्र से ऋकार के स्थान में ऋकारादेश नहीं है। विकल्प-पक्ष में ऋकार देश है- अचीकृतत् । यहां 'कृत्' धातु के उपधा- ऋकार को इर् आदेश नहीं होता है।
•
(२) अववर्तत् । यहां प्रथम वृतु भासार्थ:' ( चु030 ) धातु से पूर्ववत् चौरादिक 'णिच्' प्रत्यय है। इससे चङ्परक णिच्' प्रत्यय परे होने पर 'अत उपधायाः' (७ । २ ।११६) से अकार गुण और इसे 'उरण् रपरः' (१1१1५१) से रपरत्व होता है। विकल्प-पक्ष में गुण (अर्) नहीं है। विकल्प - पक्ष में ऋकार के स्थान में ऋकार देश है- अवीवृतत् ।
Jain Education International
(३) अममार्जत्। यहां प्रथम 'मृजूष शुद्धौं' ( अदा०प०) धातु से हेतुमति च' (३।१।२६) से हेतुमान् अर्थ में 'णिच्' प्रत्यय है । 'मृजेर्वृद्धि:' (७।२।११४) से ऋकार के स्थान में आकार वृद्धि और इसे पूर्ववत् रपरत्व (आर् ) होता है। विकल्प-पक्ष में ऋकार के स्थान में ऋकारादेश है - अमीमृजत् ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org