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________________ सप्तमाध्यायस्य चतुर्थः पादः ३२६ और च्लि' के स्थान में 'चङ्' आदेश होता है। इस सूत्र से चङ्परक णिच् प्रत्यय परे होने पर स्थाप्' धातु के उपधा-आकार को इकारादेश होता है। 'शपूर्वा: खयः' (७।४।६१) से अभ्यास का खय् (थ्) शेष और इसे 'अभ्यासे चर्च (८।४/५४) से चर् तकारादेश, आदेशप्रत्यययो:' (८।३।५९) से षत्व और 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से थकार को टवर्ग टकार होता है। इकारादेशविकल्प: (६) जिघ्रतेर्वा ।६। प०वि०-जिघ्रते: ६१ वा अव्ययपदम्। अनु०-अङ्गस्य, णौ, चङि, उपधाया, इद् इति चानुवर्तते । अन्वय:-जिघ्रतेरङ्गस्योपधायाश्चडि णौ वा इत् । अर्थ:-जिघ्रतेरङ्गस्योपधाया: स्थाने चङ्परके णौ प्रत्यये परतो विकल्पेन इकारादेशो भवति। उदा०-अजिध्रिपत्, अजिघ्रपत् । अजिघ्रिपताम्, अजिघ्रपताम् । अजिघ्रिपन्, अजिघ्रपन्। आर्यभाषा: अर्थ-(जिघ्रते:) घ्रा इस (अङ्गस्य) अङ्ग की (उपधायाः) उपधा के स्थान में (चङि) चङ्परक (णौ) णिच् प्रत्यय परे होने पर (वा) विकल्प से (इत्) इकारादेश होता है। उदा०-अजिघ्रिपत्, अजिघ्रपत् । उसने सुंघाया। अजिघ्रिपताम्, अजिघ्रपताम् । उन दोनों ने सुंघाया। अजिघ्रिपन्, अजिघ्रपन् । उन सबने सुंघाया। सिद्धि-अजिघ्रिपत् । यहां प्रथम 'घा गन्धोपदाने' (भ्वा०प०) धातु से हेतुमति च' (३।१।२६) से हेतुमान् अर्थ में णिच्’ प्रत्यय है। 'अर्तिहीव्ली०' (७ १३ ॥३६) से घ्रा' को 'पुक' आगम होता है। तत्पश्चात् णिजन्त घ्रापि' धातु से पूर्ववत् लुङ्' प्रत्यय और च्लि' के स्थान में चङ्' आदेश होता है। इस सूत्र से चपरक णिच्' प्रत्यय परे होने पर 'घ्राप्' धातु के उपधा-आकार को इकारादेश होता है। 'अभ्यासे चर्च (८।४।५४) से अभ्यास-घकार को जश्-जकारादेश होता है। विकल्प-पक्ष में इकारादेश नहीं है-अजिघ्रपत् । णौ चड्च्युपधाया ह्रस्व:' (७।४।१) से उपधा-आकार को ह्रस्व होता है। ऐसे ही तस् प्रत्यय में-अजिघ्रिपताम्, अजिघ्रपताम्। 'झि' प्रत्यय में-अजिघ्रिपन्, अजिघ्रपन् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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