SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तमाध्यायस्य तृतीयः पादः अनु० - अङ्गस्य, गुण इति चानुवर्तते । अन्वयः-ऋतोऽङ्गस्य ङिसर्वनामस्थानयोर्गुणः । अर्थ:- ऋकारान्तस्याङ्गस्य ङिप्रत्यये सर्वनामस्थानसंज्ञके प्रत्यये च परतो गुणो भवति । उदा०- (ङि) मातरि । पितरि । भ्रातरि । कर्तरि । (सर्वनामस्थानम् ) कर्तारौ, कर्तारः । मातरौ पितरौ भ्रातरौ । 1 आर्यभाषा: अर्थ- (ऋत:) ऋकार जिसके अन्त में है उस (अङ्गस्य) अङ्ग को (ङिसर्वनामस्थानयोः) ङि प्रत्यय और सर्वनामस्थान- संज्ञक प्रत्यय परे होने पर (गुण:) गुण आदेश होता है। उदा० - (ङि) मातरि । माता में । पितरि । पिता में । भ्रातरि । भ्राता में कर्तरि । कर्ता में । (सर्वनामस्थान) कर्तारौ । दो कर्ताओं ने/को। कर्तारः । सब कर्ताओं ने। मातरौ । दो माताओं ने/को। पितरौ । दो पिताओं ने/को। भ्रातरौ । दो भ्राताओं ने/को। सिद्धि-(१) मातरि । मातृ+ङि । मातृ+इ । मात् अर्+इ । मातरि । यहां ऋकारान्त 'मातृ' शब्द से 'स्वौजस० ' ( ४ | १ / २ ) से ङि' प्रत्यय है । इस सूत्र से इस 'मातृ' शब्द के ऋकार को ङि' प्रत्यय परे होने पर गुण (अ) होता है तत्पश्चात् ‘उरण् रपरः' (१1१1५१) से रपरत्व (अर्) होता है। ऐसे ही पितृ' शब्द से- पितरि । 'भ्रातृ' शब्द से - भ्रातरि । (२) कर्तारौ । कर्तृ+औ । कर्त् अर् + औ । कर्त् आर् + औ । कर्तारौ । यहां ऋकारान्त 'कर्तृ' शब्द से 'स्वौजस० ' ( ४ 1१ 1२) से सर्वनामस्थान-संज्ञक 'औ' प्रत्यय है। इस सूत्र से इस 'कर्तृ' शब्द को इस 'औ' प्रत्यय परे होने पर गुण (अ) होता है । तत्पश्चात् पूर्ववत् रपरत्व होता है । पुनः 'अप्तृन्तृच०' ( ६ |४|११) से उपधा- अकार को दीर्घ होता है। 'सुडनपुंसकस्य' (१1१1४३) से 'औ' प्रत्यय की सर्वनामस्थान संज्ञा है। ऐसे ही 'जस्' प्रत्यय में - कर्तरि । 'मातृ ' शब्द से - मातरौ । पितृ' शब्द से - पितरौ । 'भ्रातृ' शब्द से - भ्रातरौ । गुणादेशः ३१५ (११) घेर्डिति । १११ । प०वि० - घे : ६ । १ ङिति ७ । १ । स०-ङ् इद् यस्य स ङित्, तस्मिन् - ङिति (बहुव्रीहि: ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy