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सप्तमाध्यायस्य तृतीयः पादः
३०१ सिद्धि-ब्रवीति । यहां बुज्ञ व्यक्ताव्यां वाचिं' (अदाउ०) धातु से वर्तमाने लट् (३।२।१२३) से लट' प्रत्यय है। तिप्तझि०' (३।४१७८) से लकार के स्थान में तिप्' आदेश है। इस सूत्र से हलादि, पित्, सार्वधातुक-संज्ञक तिप्' प्रत्यय को ईट् आगम होता है। सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से ब्रू' को गुण और 'एचोऽयवायाव:' (६।११७७) से अव्-आदेश है। ऐसे ही सिप्' प्रत्यय में-प्रवीषि। आदेशप्रत्यययो:' (८।३।५९) से षत्व होता है। 'मिप्' प्रत्यय में-ब्रवीमि। ईडागम-विकल्प:
(३) यङो वा।६४। प०वि०-यङ: ५१ वा अव्ययपदम्। अनु०-अङ्गस्य, पिति, सार्वधातुके, हलि, इडिति चानुवर्तते। अन्वय:-योऽङ्गाद् हल: पित: सार्वधातुकस्य वा ईट् ।
अर्थ:-यङन्तादऽङ्गाद् उत्तरस्य हलादे: पित: सार्वधातुकस्य विकल्पेन ईडागमो भवति।
उदा०-शाकुनिको लालपीति । दुन्दुभिर्वावदीति । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति (ऋ० ४१५८१३)। न च भवति-वर्ति चक्रम् (ऋ० ११६४ १११)। स चर्ति जगत् ।
"हलादे: पित: सार्वधातुकस्य यङन्तादभाव इति यङ्लुगन्तस्योदाहरणम्" (काशिकावृत्ति:)।
___ आर्यभाषा: अर्थ-(यङ:) यङ् जिसके अन्त में है उस (अमात्) अग से परे (हल:) हलादि (पित:) पित् (सार्वधातुकस्य) सार्वधातुक-संज्ञक प्रत्यय को (वा) विकल्प से (ईट्) ईट् आगम होता है। .
उदा०-शाकुनिको लालपीति। चिड़ीमार (बहेलिया) शोर मचाता है। दुन्दुभिर्वावदीति। ढोल पुन:-पुनः/अधिक बजता है। त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति (ऋ० ४१५८ ॥३)। तीन स्थानों (उर:, कष्ठ, शिर) में बंधा हुआ वृषभ शब्द करता है
और कहीं ईट् आगम नहीं होता है-वर्वर्ति चक्रम् (ऋ० १६४।११)। चक्र घूमता है। स चर्ति जगत् । वह ईश्वर जगत् को पुन:-पुन: बनाता है।
सिद्धि-लालपीति। यहां प्रथम 'लप व्यक्तायां वाचि' (भ्वा०प०) धातु से 'धातोरेकाचो हलादे: क्रियासमभिहारे यङ् (३।११७) से 'यङ्' प्रत्यय है। 'सन्यडो:' (६।१।९) से धातु को द्वित्व होता है। यडोऽचि च' (२।४।७४) में बहुलवचन से
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