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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
उदा० - स तृणेढि। वह हिंसा करता है, मार डालता है। त्वं तृणेक्षि | तू हिंसा करता है । अहं तृणे। मैं हिंसा करता हूं । सोऽतृणेट् । उसने हिंसा की ।
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सिद्धि-तृणेढि । तृह+लट् । तृह+ल् । तृह+तिप् । तृ श्नम् ह्+ति । तृनह+ति । तृणह्+ति । तृण इम् ह+ति । तृण इ ह+ति। तृणेह्+ति । तृणेद्+धि । तृणेद्+ढि। तृणे०+ढि । तृणेढि ।
यहां 'गृह हिंसायाम्' (रुधा०प०) धातु से 'वर्तमाने लट्' (३ । २ । १२३) से 'लट्' प्रत्यय है । 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में 'तिप्' आदेश है। 'रुदादिभ्यः श्नम्' (३।१।७८) से 'श्नम्' विकरण - प्रत्यय होता है। इस सूत्र से इसे हलादि, पित्, सार्वधातुक-संज्ञक तिप्' प्रत्यय परे होने पर 'इम्' आगम होता है। यह मित् होने से 'मिदचोऽन्त्यात् परः' (१।१।४७ ) के नियम से अन्तिम अच् से उत्तर किया जाता है । 'हो ढ: ' (८ 1२ 1३१) से हकार को ढकार, 'झषस्तथोर्धोऽधः' (८/२/४०) से तकार को धकार, 'ष्टुना ष्टुः' (८/४/४१) से धकार को टवर्ग ढकार, 'ढो ढे लोप:' (८ 1३ 1१३) से पूर्ववर्ती ढकार का लोप होता है। ऐसे ही सिप्' प्रत्यय में तृणेक्षि । 'षढो: क: सि:' (८ । २ । ४१) से ढकार को ककार और 'आदेशप्रत्यययोः' (८ 1३1५९) से षत्व होता है। मिप्' प्रत्यय में तृणेमि । लङ् लकार में- अतृणेट् । 'हल्डयाब्भ्यो दीर्घात् ०' (६ |१।६७) से अपृक्त 'त्' (तिप्) का लोप और 'झलां जशोऽन्ते' (८1२1३९) से ढकार को डकार और 'वाऽवसाने' (८/४/५६ ) से डकार को चर् टकार होता है।
ईट्-आगमः
प०वि०- ब्रुवः ५ ।१ ईट् १ । १ ।
अनु०-अङ्गस्य, पिति, सार्वधातुके लीति चानुवर्तते । अन्वयः-ब्रुवोऽङ्गाद् हलः पितः सार्वधातुकस्य ईट् ।
अर्थः- ब्रुवोऽङ्गाद् उत्तरस्य हलादे: पितः सार्वधातुकस्य ईडागमो
भवति ।
(२) ब्रुव ईट् । ६३ ।
उदा० - स ब्रवीति । त्वं ब्रवीषि । अहं ब्रवीमि ।
आर्यभाषाः अर्थ - (ब्रुव:) ब्रू इस (अङ्गात्) अङ्ग से परे (हल: ) हलादि (पितः) पित् (सार्वधातुकस्य ) सार्वधातुक- संज्ञक प्रत्यय को (ईट) ईडागम होता है। 1 उदा० - स ब्रवीति । वह कहता है । त्वं ब्रवीषि । तू कहता है । अहं ब्रवीमि । मैं कहता हूं ।
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