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पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
(२/४ /७२ ) से 'शप्' का लुक् होता है। इस सूत्र से इसे 'शप्' प्रत्यय का लुक् होने पर हलादि, पित् सार्वधातुक तिप्' प्रत्यय परे होने पर वृद्धि होती है। ऐसे ही 'सिप्' प्रत्यय में- यौषि । 'मिप्' प्रत्यय में - यौमि ।
(२) नौमि | 'णुञ् स्तुतौं' (अदा० उ० ) धातु से पूर्ववत् । (३) स्तौमि । 'ष्टुञ् स्तुतौं' ( अदा० उ० ) धातु से पूर्ववत् । वृद्धि - आदेशविकल्पः
(५०) ऊर्णोतेर्विभाषा । ६० ।
प०वि० - ऊर्णोतेः ६ । १ विभाषा १ । १ । अनु०-अङ्गस्य, पिति, सार्वधातुके, वृद्धि:, हलीति चानुवर्तते । अन्वयः-ऊर्णोतरङ्गस्य हलि पिति सार्वधातुके विभाषा वृद्धि: । अर्थ:-ऊर्णोतरङ्गस्य हलादौ पिति सार्वधातुके प्रत्यये परतो विकल्पेन
वृद्धिर्भवति ।
उदा०-स प्रोर्णौति, प्रोर्णोति । त्वं प्रोर्णौषि, प्रोर्णोषि । अहं प्रोणमि, प्रोर्णोमि ।
आर्यभाषाः अर्थ- (ऊर्णोतिः) ऊर्णोति=ऊर्णु इस (अङ्गस्य ) अङ्ग को (हलि) हलादि (पिति) पित् (सार्वधातुके) सार्वधातुक-संज्ञक प्रत्यय परे होने पर ( विभाषा) विकल्प से (वृद्धि:) वृद्धि होती है ।
उदा० - स प्रोर्णौति, प्रोर्णोति । वह आच्छादित करता है, ढकता है । त्वं प्रोर्णीषि, प्रोर्णोषि । तू आच्छादित करता है । अहं प्रोर्णोमि, प्रोर्णोमि । मैं ढकता हूँ ।
सिद्धि-प्रोर्णोति । यहां प्र-उपसर्गपूर्वक 'ऊर्णुञ् आच्छादने' (अदा० उ०) धातु से 'वर्तमाने लट्' (३ । २ । १२३) से 'लट्' प्रत्यय है । 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में 'तिप्' आदेश है । इस सूत्र से इसे हलादि, पित्, सार्वधातुक - संज्ञक तिप्' प्रत्यय परे होने पर वृद्धि होती है। विकल्प-पक्ष में वृद्धि नहीं है- प्रोर्णोति । ऐसे ही सिप्' प्रत्यय में- प्रोणषि, प्रोर्णोषि । 'मिप् प्रत्यय में प्रोर्णोमि, प्रोर्णोमि ।
गुण-आदेश:
(५१) गुणोऽपृक्ते । ६१ ।
प०वि०- गुणः १ ।१ अपृक्ते ७ । १ ।
अनु०-अङ्गस्य, पिति, सार्वधातुके, हलि, ऊर्णोतिरिति चानुवतते ।
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