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सप्तमाध्यायस्य तृतीयः पादः
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होता है । 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३।८४) से गुण प्राप्त था । ऐसे ही 'सिप्' प्रत्यय में- अभूः । मिप्' प्रत्यय में - अभूवम् | 'भुवो वुग् लुलिटो:' (६।४।८८) से 'वुक्आगम है।
(२) सुवै । यहां षूञ् प्राणिगर्भविमोचने (अदा०आ०) धातु से 'लोट् चं (३ । ३ । १६२ ) से 'लोट्' प्रत्यय है । 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में 'इट्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इसे सार्वधातुक तिङ् (इट् ) प्रत्यय परे होने पर गुण नहीं होता है । 'अचि इनुधातुभ्रुवां०' (६।४।७७) से उवङ् आदेश होता है। 'टित आत्मनेपदानां टेरे' (३।४।७९) से 'इट्' के टि-भाग को एत्व, 'एत ऐ' (३/४/९३) से ऐकारादेश, 'जुहोत्यादिभ्यः श्लुः' (२/४/७५) से 'शप्' को श्लु, 'आडुत्तमस्य पिच्च' (३ | ४ /९२) से आट् आगम है। ऐसे ही 'वहि' प्रत्यय में - सुवावहै । 'महिङ्' प्रत्यय में - सुवामहै । वृद्धि - आदेश:
(४६) उतो वृद्धिर्लुकि हलि | ८६ ।
प०वि०-उतः ६ |१ वृद्धिः १ । १ लुकि ७ । १ हलि ७ । १ । अनु०-अङ्गस्य, पिति, सार्वधातुके इति चानुवर्तते । अन्वयः-उतोऽङ्गस्य लुकि हलि पिति सार्वधातुके वृद्धिः । अर्थः-उकारान्तस्याऽङ्गस्य लुकि सति हलादौ पिति सार्वधातुके प्रत्यये परतो वृद्धिर्भवति।
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उदा०-(यु) स यौति । त्वं यौषि । अहं यौमि । ( नु) स नौति । त्वं नौषि। अहं नौमि । (स्तु) स स्तौति । त्वं स्तौषि । अहं स्तौमि ।
आर्यभाषाः अर्थ-( उत:) उकारान्त (अङ्गस्य) अङ्ग को (लुकि) प्रत्यय का लुक् हो जाने पर (हलि) हलादि (पिति) पित् ( सार्वधातुके) सार्वधातुक-संज्ञक प्रत्यय परे होने पर ( वृद्धि:) वृद्धि होती है।
उदा०-1 (यु) स यौति । वह मिश्रण / अमिश्रण करता है । त्वं यौषि । तू मिश्रण / अमिश्रण करता है। अहं यौमि । मैं मिश्रण/अमिश्रण करता हूं। (नु) स नौति । वह स्तुति करता है । त्वं नौषि । तू स्तुति करता है । अहं नौमि । मैं स्तुति करता हूं। (स्तु) स स्तौति । वह स्तुति करता है । त्वं स्तौषि । तू स्तुति करता है । अहं स्तौमि । मैं स्तुति करता हूं ।
सिद्धि-(१) यौति । यहां 'घु मिश्रणेऽमिश्रणे च' (अदा०प०) धातु से 'वर्तमाने लट् (३ / २ /१२३) से 'लट्' प्रत्यय है । 'तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में तिप् आदेश, 'कर्तरि शप्' (३।१।६८) से 'शप्' विकरण-प्रत्यय और 'अदिप्रभृतिभ्यः शपः '
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