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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
से पित् आट्-आगम, 'कर्तरि शब्' (३ | १/६८ ) से 'शप्' विकरण-प्रत्यय, 'जुहोत्यादिभ्यः श्लुः' (२/४/७५) से 'शप्' को श्लु - आदेश और 'श्लौं' ( ६ 1१1१०) से धातु को द्वित्व होता है। इस सूत्र से इस अभ्यस्तसंज्ञक धातु के इक् को अजादि, पित्, सार्वधातुक 'आन' प्रत्यय परे होने पर लघूपधलक्षण गुण का प्रतिषेध होता है। णिजां त्रयाणां गुणः श्लौं (७/४/७५) से अभ्यास को गुण होता है। ऐसे ही लङ् लकार उत्तमपुरुष एकवचन में - अनेनिजम् । तस्थस्थमिपां तान्तन्ताम:' ( ३ | ४ | १०१ ) से मिप्' को 'अम्' आदेश होता है।
(२) वेविजानि । 'विजिर् पृथग्भावे (जु०प०) धातु से पूर्ववत् । लङ् लकार उत्तमपुरुष एकवचन में - अवेविजम् ।
(३) परिवेविषाणि । परि-उपसर्गपूर्वक विष्लृ व्याप्तौँ' (जु०प०) धातु से पूर्ववत् । लङ् लकार उत्तमपुरुष एकवचन में पर्यवेविषम् ।
गुणादेशप्रतिषेधः
(४८) भूसुवोस्तिङि । ८८ ।
प०वि० - भू - सुवो: ६ । २ तिङि ७।१।
स०- भूश्च सूश्च तौ भूसुवौ तयो:- भूसुवोः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अनु० - अङ्गस्य, गुणः, न, सार्वधातुके इति चानुवर्तते । अन्वयः - भूसुवोरङ्गयोरिकः सार्वधातुके तिङि गुणो न । अर्थः-भूसुवोरङ्गयोरिकः स्थाने सार्वधातुके तिङि प्रत्यये परतो गुणो न भवति ।
उदा०- (भू) सोऽभूत् । त्वम् अभूः । अहम् अभूवम् । (सू) अहं सुवै । आवां सुवावहै । वयं सुवामहै ।
आर्यभाषाः अर्थ- (भूसुवो: ) भू, सू इन (अङ्गयोः) अङ्गों के (इक: ) इक् वर्ण के स्थान में (सार्वधातुके) सार्वधातुक संज्ञक (तिङि) तिङ् प्रत्यय परे होने पर (गुण:) गुण (न) नहीं होता है ।
उदा०- (भू) सोऽभूत् । वह हुआ / था । त्वम् अभूः । तू हुआ /था। अहम् अभूवम् । मैं हुआ / था। (सू) अहं सुवै । मैं प्रसव करूं । आवां सुवावहै । हम दोनों प्रसव करें। वयं सुवामहै | हम सब प्रसव करें।
सिद्धि - अभूत्। यहां 'भू सत्तायाम्' (भ्वा०प०) धातु से 'लुङ्' (३ 1 २ 1११०) से 'लुङ्' प्रत्यय है। 'गातिस्थाघुपाभूभ्यः सिचः परस्मैपदेषु' (२/४ १७७) से सिच्' का लुक् होता है। इस सूत्र से इसे पित्, सार्वधातुक, तिङ् (तिप्) प्रत्यय परे होने पर गुण नहीं
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