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________________ २६४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (६) जागरितः । यहां जागृ धातु से निष्ठा' (३।२।१०२) से भूतकाल अर्थ में निष्ठा-संज्ञक 'क्त' प्रत्यय है। इसके कित् होने से क्डिति च (१।१५) से गुण का प्रतिषेध प्राप्त था। इस सूत्र से जागृ’ को गुण होता है। ऐसे ही क्तवतु' प्रत्यय में-जागरितवान् । गुणादेशः (४६) पुगन्तलघूपधस्य च।८६। प०वि०-पुगन्त-लघूपधस्य ६१ च अव्ययपदम् । स०-पुग् अन्ते यस्य तत्-पुगन्तम्, लघ्वी उपधा यस्य तत्-लघूपधम् । पुगन्तं च लघूपधं च एतयो: समाहार: पुगन्तलघूपधम्, तस्य-पुगन्तलघूपधस्य (बहुव्रीहिगर्भितसमाहारद्वन्द्व:)। अनु०-अङ्गस्य, गुणः, सार्वधातुकार्धधातुकयोरिति चानुवर्तते। ‘इको गुणवृद्धी (१।१।३) इति परिभाषया चात्र 'इकः' इति षष्ठ्यन्तं पदमुपतिष्ठते। ____ अन्वय:-पुगन्तलघूपधस्याऽङ्गस्य चेक: सार्वधातुकार्धधातुकयोर्गुण: । अर्थ:-पुगन्तस्य लघूपधस्याऽङ्गस्य चेक: स्थाने सार्वधातुके आर्धधातुके च प्रत्यये परतो गुणो भवति। उदा०-(पुगन्तम्) स हृपयति। स ब्लेपयति। स क्नोपयति । (लघूपधम्) भेदनम् । छेदनम्। भेत्ता। छेत्ता। आर्यभाषा: अर्थ-(पुगन्तलघूपधस्य) पुक् जिसके अन्त में है और जिसकी लघु उपधा है उस (अङ्गस्य) अड्ग के (इक:) इक् वर्ण के स्थान में (सार्वधातुकार्धधातुकयो:) सार्वधातुक और आर्धधातुक संज्ञक प्रत्यय परे होने पर (गुण:) गुण होता है। उदा०-(पुगन्त) स हेपयति । वह लज्जित करता है। स लेपयति । वह वरण (पसन्द) करता है। स क्नोपयति । वह शब्द/गीला करता है। (लघूपध) भेदनम् । फाड़ना। छेदनम् । काटना। भेत्ता । फाड़नेवाला। छेत्ता । काटनेवाला। सिद्धि-(१) हेपयति। यहां ही लज्जायाम् (जु०प०) धातु से हेतुमति च' (३।१।२६) से णिच्’ प्रत्यय है। 'अर्तिही०' (७।३ ।३६) से इसे 'पुक्’ आगम होता है। इस सूत्र से इसे आर्धधातुक णिच्' प्रत्यय परे होने पर पुगन्तलक्षण गुण (ए) होता है। ऐसे ही ली वरणे (क्रया०प०) धातु से-लेपयति। क्यी शब्दे उन्दे च' (भ्वा०आ०) धातु से-क्नोपयति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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