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सप्तमाध्यायस्य तृतीयः पादः
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सिद्धि- मेद्यति। यहां 'ञिमिदा स्नेहने' (दि०प०) धातु से 'वर्तमाने लद् (३ ।२।१२३) से 'लट्' प्रत्यय है। 'दिवादिभ्यः श्यन्' (३।१।६९) से 'श्यन् ' विकरण-प्रत्यय है। यह प्रत्यय 'सार्वधातुकमपित' (१।२।४) से ङिद्वत् है । अत: 'क्ङिति च' (१1814) गुण का प्रतिषेध प्राप्त था । अतः इस सूत्र से गुण का विधान किया गया है। ऐसे ही तस्-प्रत्यय में- मेद्यत: । झि-प्रत्यय में- मेद्यन्ति ।
गुणादेशः
(४३) जुसि च । ८३ ।
प०वि० - जुसि ७ । १ च अव्ययपदम् ।
अनु०-अङ्गस्य, गुण इति चानुवर्तते । 'इको गुणवृद्धी' (१1१1३) इति परिभाषया चाऽत्र ‘इक:' इति षष्ठ्यन्तं पदमुपतिष्ठते । अन्वयः - इकोऽङ्गस्य जुसि च गुणः । अर्थ:-इगन्तस्याऽङ्गस्य जुसि च प्रत्यये परतो गुणो भवति । उदा० - जुहवुः । तेऽविभयुः । तेऽबिभरुः ।
आर्यभाषाः अर्थ- (इक: ) इक् जिसके अन्त में है उस (अङ्गस्य) अङ्ग को (जुसि) जूस् प्रत्यय परे होने पर (च) भी (गुण:) गुण होता है ।
उदा० - तेऽजुहवुः | उन सबने हवन किया । तेऽविभयुः | वे सब भयभीत हुये । तेभिरुः । उन्होंने धारण-पोषण किया।
सिद्धि - अजुहवुः । हु+लङ् । अट्+हु+ल् । अ+हु+झि | अ+हु+शप्+झि । अ+हु+०+झि | अ+हु-हु+झि । अ+हु-हु+जुस् । अ+झु-हु+उस् । अ+जु-हो+उस । अ+जु-हव्+उस् । अजुहवु+स् । अजुहवुः ।
यहां 'हु दानादनयो:' (जु०प०) धातु से 'अनद्यतने लङ्' (३ | ३ |१५ ) से 'लङ्' प्रत्यय है । 'कर्तरि शब्' (३ 1१ 1६८) से 'शप्' विकरण-प्रत्यय होता है। जुहोत्यादिभ्यः श्लुः' (२।४/७५) से 'शप्' को श्लु- आदेश और 'श्लो' (६ । १ । १०) से धातु को द्वित्व होता है । 'सिजभ्यस्तविदिभ्यश्च' ३ | ४ | १०९ ) से अभ्यस्त हु' धातु से परे 'झि' के स्थान में 'जुस्' आदेश होता है। इस सूत्र से इसे 'जुस्' परे होने पर गुण होता है। 'कुहोश्चुः' (७/४/६२) से अभ्यास के हकार को चवर्ग झकार और 'अभ्यासे चर्च' (1४1५४) से झकार को जश् जकार होता है। ऐसे ही 'जिभी भयें' (जु०प०) धातु से - अबिभयुः । 'डुभृञ् धारणपोषणयो:' (जु०उ० ) धातु से - अबिभरु: । 'भृञामित्' (७१४/७६) से अभ्यास को इकारादेश होता है।
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