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सप्तमाध्यायस्य तृतीयः पादः
२७५ अनु०-अङ्गस्य, चजोः, कु:, नेति चानुवर्तते। अन्वय:-यज्ञाङ्गे प्रयाजानुयाजौ {अड्योश्च जो: कुन ।
अर्थ:-यज्ञाझे विषये प्रयाजानुयाजौ शब्दौ निपात्येते, अर्थात्एतयोरङ्गयोश्चकारजकारयोः स्थाने कवदिशो न भवति ।
उदा०-पञ्च प्रयाजा: (तै०सं० २।६।१०)। त्रयोऽनुयाजा: (श०ब्रा० ११।४।१।११)।
आर्यभाषा: अर्थ-(यज्ञागे) यज्ञ के अवयव विषय में (प्रयाजानुयाजौ) प्रयाज और अनुयाज शब्द निपातित है, अर्थात् इन (अङ्गयो:) अगों के (चजो:) चकार और जकार के स्थान में (कु:) कवगदिश (न) नहीं होता है।
उदा०-पञ्च प्रयाजा: (तै०सं० २।६।१०)। पांच प्रयाज नामक यज्ञ । त्रयोऽनुयाजा: (श०ब्रा० ११।४।१।११)। तीन अनुयाज नामक यज्ञ।
सिद्धि-प्रयाजा: । यहां प्र-उपसर्गपूर्वक यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु' (भ्वा०३०) धातु से 'अकर्तरि च कारके संज्ञायाम् (३।३।१९) से संज्ञा-विषय में 'घञ्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इसके जकार को कवगदिश का प्रतिषेध निपातित है। ऐसे ही-अनुयाजा:।
विशेष: (१) दर्शपौर्णमास-इष्टि में पांच आहुतियां दी जाती हैं, जिन्हें पांच प्रयाज कहते थे। यह यज्ञ का पूर्वाङ्ग या पूर्वभाग था। इसके बाद की तीन गौण आहुति अनुयाज कहलाती थी।
(२) शतपथ के अनुसार समिध्-प्रयाज आदि पांच प्रयाज ये हैं- {१) समिधो यजति (२) तनूनपातं यजति (३) बर्हिर्यजति (४) इडो यजति {५) स्वाहाकारं यजति (श० १ १५ ।३।१-१३)।
(३) अनुयाज तीन हैं-त्रयोऽनुयाजाश्चत्वार: पत्नीसंयाजा: (शत० ११।४।१।११)। दर्शपौर्णमास-इष्टि में तीन अनुयाजों के बाद यजमान-पत्नी चार पत्नी-संयाज आहुति देती है (पाणिनि कालीन भारतवर्ष, पृ० ३७१)।
(४) काशिकावृत्ति में 'पञ्चानुयाजा' यह अपपाठ है। अनुयाज तीन हैं, पांच नहीं। कु-आदेशप्रतिषेधः
(२३) वञ्चेर्गतौ।६३ । प०वि०-वञ्चे: ६१ गतौ ७।१। अनु०-अङ्गस्य, चजो:, कुः, नेति चानुवर्तते। अन्वय:-गतौ वञ्चेरङ्गस्य चजो: कुर्न ।
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