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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-गतावर्थे वर्तमानस्य वञ्चेरमस्य चकारस्य स्थाने कवगदिशो न भवति।
उदा०-वञ्च्यं वञ्चन्ति वणिजः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(गतौ) गति-अर्थ में विद्यमान (वञ्चे:) वञ्चि इस (अङ्गस्य) अङ्ग के (चजो:) चकार के स्थान में (कु:) कवगदिश (न) नहीं होता है।
उदा०-वञ्च्यं वञ्चन्ति वणिज: । व्यापारी लोग अपने गन्तव्य देश को जाते हैं।
सिद्धि-कञ्च्यम् । यहां वञ्चु गतौं (भ्वा०प०) धातु से ऋहलोर्ण्यत् (३।४।१२४) से ण्यत्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इसे कवगदिश का प्रतिषेध होता है। 'चजो: कु घिण्ण्यतो:' (७।३ १५२) से कुत्व प्राप्त था। ... विशेष: वञ्चि' धातु में चकार है, जकार नहीं। अत: जकार की अनुवृत्ति एकपद की परवशता से की गई है। निपातनम्
(२४) ओक उचः के।६४। प०वि०-ओक: १।१ उच: ५।१ के ७।१। अनु०-अङ्गस्य, कुरिति चानुवर्तते । अन्वय:-उचोऽङ्गात् के ओक: कुः ।
अर्थ:-उचोऽङ्गात् के प्रत्यये परत ओक इति निपात्यते, अत्र कवगदिशो भवतीत्यर्थः ।
उदा०-न्युचतीति न्योक: शकुन्त: । न्युचन्त्यस्मिन्निति न्योको गृहम्।
आर्यभाषा अर्थ-(उच:) उच् इस (अङ्गात्) अग से परे (ओक:) ओक यह शब्द निपातित है अर्थात् यहां (कु.) कवगदिश होता है।
उदा०-न्योकः शकुन्तः । जो समुदाय बनाकर रहता है वह-पक्षी। न्योको गृहम् । जिस में लोग निवास करते हैं वह-घर।।
सिद्धि-न्योकः । नि+उच्+क। नि+उक्+अ । न्योक+सु । न्योकः ।
यहां नि-उपसर्गपूर्वक उच समवाये' (दि०प०) धातु से गुपधज्ञाप्रीकिर: क:' (३।१।१३५) से कर्ता अर्थ में 'क' प्रत्यय है। इस सूत्र से इसे 'क' प्रत्यय के कित' होने से क्डिति च' (१1१।५) से प्राप्त गुणप्रतिषेध भी नहीं होता है। अथवा-'घअर्थे कविधानं० (३।३।५८) से अधिकरण कारक में 'क' प्रत्यय है।
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