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सप्तमाध्यायस्य तृतीयः पादः
२७३ (२) कूज्यम् । यहां कूज अव्यक्ते शब्दे' (भ्वा०प०) धातु से ऋहलोर्ण्यत् (३।१।१२४) से ण्यत्' प्रत्यय है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही पूर्वोक्त खर्ज' और गर्ज" धातुओं से-खर्ण्यम्, गय॑म् । कु-आदेशप्रतिषेधः
(२०) अजिव्रज्योश्च ।६०। प०वि०-अजि-व्रज्यो: ६।२ च अव्ययपदम् ।
स०-अजिश्च जिश्च तौ अजिव्रजी, तयो:-अजिव्रज्यो: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अनु०-अङ्गस्य, चजो:, कुः, नेति चानुवर्तते। अन्वय:-अजिव्रज्योरङ्गयोश्च चजो: कुर्न ।
अर्थ:-अजिव्रज्योरङ्गयोश्च चकार-जकारयोः स्थाने कवगदिशो न भवति।
उदा०-(अजि:) समाज:, उदाज: । (व्रजि:) परिव्राज:, परिव्राज्यम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(अजिव्रज्यो:) अजि, वजि इन (अङ्गयोः) अगों के (च) भी (चजो:) चकार और जकार के स्थान में (कु:) कवगदिश (न) नहीं होता है।
उदा०-(अजि) समाजः । मनुष्यों का समुदाय। उदाजः । प्रेरणा। (ब्रजि) परिव्राजः । परिव्राट्-संन्यासी। परिवाज्यम् । परिव्रजन (भ्रमण) करना चाहिये।
सिद्धि-(१) समाजः । यहां सम्-उपसर्गपूर्वक 'अज गतिक्षेपणयोः (भ्वा०प०) धातु से हलश्च (३।३।१२१) से घञ्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इसे कवगदिश का प्रतिषेध होता है। जो: कु घिण्ण्यतो:' (७।३।५२) से कुत्व प्राप्त था। ऐसे ही उत्-उपसर्गपूर्वक 'अज' धातु से-उदाजः।
(२) परिवाजः। यहां परि-उपसर्गपूर्वक व्रज गतौ (भ्वा०प०) धातु से 'भावे (३ ।३।१८) से घञ्' प्रत्यय है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है।
(३) परिव्राज्यम् । यहां परि-उपसर्गपूर्वक व्रज' धातु से ऋहलोर्ण्यत' (३।१।१२४) से ण्यत्' प्रत्यय है। 'अत उपधाया:' (७।२।११६) से अङ्ग को उपधावृद्धि होती है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है।
विशेष: 'अज' धातु को घञ्' और 'अप्' प्रत्यय से भिन्न आर्धधातुक विषय में 'अजेळघनपो:' (२।४।५६) से वी' आदेश होता है। अत: इसका ण्यत्' प्रत्यय में उदाहरण दिया गया है।
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