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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-(१) चिचीपति । यहां चित्र चयने (स्वा०उ०) धातु से 'धातो: कर्मण: समानकर्तृकादिच्छायां वा' (३।१।७) से सन्' प्रत्यय है। 'सन्यङोः' (६।१।९) से चि' धातु को द्वित्व होता है। इस सूत्र से अभ्यास से परे 'चि' धातु को कवगदिश नहीं होता है। विकल्प-पक्ष में कवगदिश है-चिकीपति । 'अज्झनगमां सनि' (६।४।१६) से दीर्घ होता है।
(२) चिचाय । यहां पूर्वोक्त चि' धातु से 'परोक्षे लिट्' (३।२।११५) से लिट्' प्रत्यय है। लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१८) से चि' धातु को द्वित्व होता है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। विकल्प-पक्ष में कंवदिश है-चिकाय । कु-आदेशप्रतिषेधः
(१६) न क्वादेः ।५६ । प०वि०-न अव्ययपदम्, कु-आदे: ६।१। स०-कुरादिर्यस्य स क्वादिः, तस्य-क्वादे: (बहुव्रीहिः)।
अनु०-अङ्गस्य, कुरिति चानुवर्तते। 'चजो: कु घिण्ण्यतो:' (७१३ १५२) इत्यस्माच्च चजोरिति च मण्डूकोत्प्लुत्याऽनुवर्तनीयम्।
अन्वय:-क्वादेरङ्गस्य चजो: कुर्न।
अर्थ:-कवगदिरङ्गस्य चकारस्य जकारस्य च स्थाने कवगदिशो न भवति।
उदा०-कूजो वर्तते। खर्जः । गर्ज: । कूज्यं भवता। खयं भवता । गर्घ्यं भवता।
आर्यभाषा: अर्थ-(क्वादे:) कवर्ग जिसके आदि में है उस (अङ्गस्य) अग के (चजोः) चकार और जकार के स्थान में (कुः) कवगदिश (न) नहीं होता है।
उदा०-कूजो वर्तते । पक्षियों का कूजन (चहचाना) है। खों वर्तते । दुःख है। गर्जो वर्तते। मेघ का गर्जन है। कूज्यं भवता। आपको कूजन करना चाहिये। खऱ्या भवता । आपको पूजित होना चाहिये। गय॑ भवता । आपको गर्जन करना चाहिये।
सिद्धि-(१) कूजः । यहां कुज अव्यक्ते शब्दे' (भ्वा०प०) इस कवर्गादि धातु से 'भावे (३।३।१८) से भाव-अर्थ में घञ्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इसके जकार को कवगदिश का प्रतिषेध होता है। 'चजो: कु घिण्ण्यतो:' (७।३।५२) से कुत्व प्राप्त था। ऐसे ही खर्ज व्यथने पूजने च' (भ्वा०प०) से-खर्जः। 'गर्ज शब्दे' (भ्वा०प०) धातु से-गर्जः।
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