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सप्तमाध्यायस्य तृतीयः पादः
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आर्यभाषाः अर्थ- ( अभ्यासात्) अभ्यास से परे (जे.) जि इस (अङ्गस्य) अङ्ग को (सन्लिटोः) सन् और लिट् प्रत्यय परे होने पर (कुः ) कवगदिश होता है । उदा०- १- (सन्) स जिगीषति । वह विजय करना चाहता है। (लिट्) स जिगाय । उसने विजय किया ।
सिद्धि - (१) जिगीषति । जि+सन् । जि-जि+स। जि-गि+स। जि-गी+स | जिगीष+लट् । जिगीषति ।
यहां 'जि जये (स्वा०प०) धातु से 'धातोः कर्मण: समानकर्तृकादिच्छायां वा' (३ 1१1७) से सन्' प्रत्यय है । 'सन्यङो:' ( ६ 1१1९ ) से जि' धातु को द्वित्व होता है। इस सूत्र से अभ्यास से उत्तरवर्ती 'जि' धातु के कार को ककारादेश होता है। 'अज्झनगमां सनि' (६/४/१६ ) से दीर्घ और 'आदेशप्रत्यययो:' ( ८1३1५९ ) से षत्व होता है ।
(२) जिगाय ! यहां पूर्वोक्त 'जि' धातु से 'परोक्षे लिट्' (३1२1११५ ) से 'लिट्' प्रत्यय है। लिटि धातोरनभ्यासस्य (६ 1१1८) से जि' धातु को द्वित्व होता है। सूत्र - कार्य पूर्ववत् है । 'अचो गति' (७ 12 1884 ) हो वृद्धि और एचोऽयवायाव:' ( ६ |१/७७ ) से 'आम्' आदेश हैं।
कु· आदेशविकल्पः
(१८) विभाषा चेः ! ५८
प०वि० - विभाषा १ । १ चे: ६ । १ ।
अनु०-अङ्गस्य, कुः, अभ्यासात् सन्न्लोरिति वानुवर्तते । अन्वयः - अभ्यासाच्चेरङ्गस्य सन्लिटोर्विभाषा कुः ।
अर्थ:- अभ्यासाद् उत्तरस्य चिनोतेरङ्गस्य सनि लिटि च प्रत्यये परत विकल्पेन कवगदिशो भवति ।
उदा० (सन् ) स चिचीपति, चिकीषति । (लिट् ) स चिचाय, विकास ।
आर्यभाषाः अर्थ- (अभ्यासात्) अभ्यास से परे (:) चि एल (अङ्गस्य ) अङ्ग को (सन्लिटो:) सन् और लिट् प्रत्यय परे होने पर ( जिभाषा) विकल्प से (कुः) कवगदिश होता है।
उदा०
- (सन् ) स चिचीषति, चिकीषति । वह चयन करना चाहता है । (लिट् ) स चिचाय, चिकाय । उसने चयन किया ।
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