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सप्तमाध्यायस्य तृतीयः पादः सिद्धि-खट्वाका । यहां खट्वा' शब्द से 'हस्वे (५ १३ १८६) से हस्व-अर्थ में क' प्रत्यय है। केणः' (७।४।१३) से आकार को हस्वादेश होता है। इस सूत्र से इस अकार के स्थान में पाणिनि मुनि के गुरुवर आचार्य (वर्ष) के मत में आकारादेश होता है। ऐसे ही नञ्पूर्व से--अखट्वाका। परमखट्वाका। यहां कुत्सिते' (५।३ १७४) से कुत्सित-अर्थ में कन्' प्रत्यय है।
विशेष: अष्टाध्यायी सूत्रपाठ में जहां 'आचार्याणाम्' इस बहुवचनान्त पद का प्रयोग है, वहां पाणिनि मुनि के गुरुवर वर्ष आचार्य के मत का ग्रहण किया जाता है। इस पद में बहुवचन आदर के लिये है-आदरार्थ बहुवचनम् । इक-आदेश:
(१०) ठस्येकः ।५०। प०वि०-ठस्य ६१ इक: ११। अनु०-अङ्गस्येत्यनुवर्तते। अन्वय:-अङ्गाट्ठस्येक: । अर्थ:-अङ्गाद् उत्तरस्य ठस्य स्थाने इकादेशो भवति ।
उदा०-प्राग्वहतेष्ठक् (४।४।१) आक्षिकः, शालाकिकः । लवणाट्ठञ् (४।४।५२) लावणिकः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(अङ्गात्) अग से परे (ठस्य) ठ-प्रत्यय के स्थान में (इक:) इक-आदेश होता है।
उदा०-प्राग्वहतेष्ठक् (४।४।१) आक्षिकः । पासों से खेलनेवाला, जुआरी। शालाकिक: । शलाका के आकार के पासों से खेलनेवाला, जुआरी। लवणाट्ठा (४।४।५२) लावणिकः । लवण (नमक) का व्यापारी।
सिद्धि-(१) आक्षिकः । अक्ष+ठक् । अक्ष+इक । आश्+इक । आक्षिक+सु। आक्षिकः ।
यहां 'अक्ष' शब्द से तेन दीव्यति खनति जयति जितम् (४।४।२) से यथाविहित ठक' प्रत्यय है। इस सूत्र से इस 3' के स्थान में 'इक' आदेश होता है। किति च' (७।२।११८) से आदिवद्धि और 'यस्येति च' (६।४।१४८) से अङ्ग के अकार का लोप होता है।
(२) लावणिकः । यहां लवण' शब्द से लवणाट्ठा (४।४।५२) से पण्य-अर्थ में ठञ्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
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