SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-स्नेहविपातनेऽर्थे वर्तमानयोगलोरङ्गयोी प्रत्यये परतो विकल्पेन यथासंख्यं नुग्लुकावागमौ भवतः । उदा०-(ली) स घृतं विलीनयति (नुक्)। विलाययति। (ला) स घृतं विलालयति (लुक्) । विलापयति । विलाययति । आर्यभाषा: अर्थ- (स्नेहविपातने) घृत आदि पदार्थों के पिघालने अर्थ में विद्यमान (लीलो:) ली, ला इन (अङ्गयोः) अगों को (णौ) णिच् प्रत्यय परे होने पर (अन्यतरस्याम्) विकल्प से यथासंख्य (नुग्लुकौ) नुक और लुक् आगम होते हैं। उदा०-(ली) स घृतं विलीनयति (नुक्)। विलाययति । वह घृत को पिंघलाता है। (ला) स घृतं विलालयति (लुक्)। विलापयति। विलाययति। वह घृत को पिंघलाता है। सिद्धि-(१) विलीनयति । यहां वि-उपसर्गपूर्वक लीङ् श्लेषणे (दि०आ०) धातु से स्नेहविपातन अर्थ में पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इसे लुक्’ आगम होता है। विकल्प पक्ष में 'लुक्' आगम नहीं है-विलाययति । (२) विलालयति। यहां वि-उपसर्गपूर्वक ला आदाने (अदा०प०) धातु से स्नेहविपातन अर्थ में हेतुमति च' (३।१।२६) से णिच्’ प्रत्यय है। इस सूत्र से इसे 'नुक्' आगम होता है। विकल्प पक्ष में नुक्' आगम नहीं है-विलापयति । 'अर्तिही०' (७।३ ।३६) से पुक्-आगम होता है। विशेष: 'लीङ् श्लेषणे (दि०आ०) धातु को ली' रूप में ही नुक् आगम होता है-विलीनयति। इसे विभाषा लीयते:' (६।१।५०) से विकल्प से आत्व होता है। आत्व-पक्ष में 'अर्तिही०' (७।३।३६) से पुक् आगम होता है-विलापयति । जहां आत्व नहीं होता है वहा-विलाययति । षुक-आगमः (८) भियो हेतुभये षुक्।४०। प०वि०-भिय: ६।१ हेतुभये ७१ षुक् १।१ । स०-हेतोर्भयमिति हेतुभयम्, तस्मिन् हेतुभये (पञ्चमीतत्पुरुष:)। अनु०-अङ्गस्य, णाविति चानुवर्तते। अन्वय:-हेतुभये भियोऽङ्गस्य णौ षुक् । अर्थ:-हेतुभयेऽर्थे वर्तमानस्य भियोऽङ्गस्य णौ प्रत्यये परत: षुगागमो भवति। उदा०-मुण्डो भीषयते माणवकम्। जटिलो भीषयते माणवकम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy