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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-सौमेन्द्रः । सोम और इन्द्र जिसके देवता हैं। आग्नेन्द्रः । अग्नि और इन्द्र जिसके देवता हैं।
सिद्धि-सौमेन्द्रः। यहां प्रथम देवतावाची सोम और इन्द्र शब्दों का चार्थे द्वन्द्वः' (२।२।२९) से द्वन्द्वसमास हैं-सोमश्च इन्द्रश्च तौ सोमेन्द्रौ । तत्पश्चात् सास्य देवता (४।२।२४) में देवता-अर्थ में 'अण्' प्रत्यये होता है। इस सूत्र से पर-उत्तरपदवर्ती 'इन्द्र' शब्द को आदिवृद्धि का प्रतिषेध होता है। सोमेन्द्रौ देवते अस्येति-सौमेन्द्रः। देवताद्वन्द्वे च' (६।३ ।२६) से अनङ् आदेश और 'आद्गुणः' (६।१।८७) से गुणरूप एकादेश होता है। ऐसे ही-आग्नेन्द्रः। उक्तप्रतिषेधः
(२३) दीर्घाच्च वरुणस्य ।२३। प०वि०-दीर्घात् ५।१ च अव्ययपदम्, वरुणस्य ६।१।
अनु०-अङ्गस्य, वृद्धि:, अच:, णिति, तद्धितेषु, अचाम्, आदे:, किति, देवताद्वन्द्वे, नेति चानुवर्तते।
अन्वय:-देवताद्वन्द्वे दीर्घाच्च वरुणस्याङ्गस्याचामादेरचस्तद्धिते णिति किति च वृद्धिर्न।
अर्थ:-देवतावाचिनां शब्दानां द्वन्द्वे समासे दीर्घादुत्तरस्य च वरुणस्याऽङ्गस्याऽचामादेरच: स्थाने, तद्धिते जिति णिति किति च प्रत्यये परतो वृद्धिर्न भवति।
उदा०-ऐन्द्रावरुणम्। मैत्रावरुणम्।
आर्यभाषाअर्थ-दिवताद्वन्द्वे) देवतावाची शब्दों के द्वन्द्वसमास में (च) और (दीर्घात्) दीर्घान्त शब्द से परे (वरुणस्य) वरुण इस (अगस्य) अङ्ग के (अचाम्) अचों में से (आदे:) आदिम (अच:) अच् के स्थान में (तद्धिते) तद्धित-संज्ञक (ञ्णिति) जित्, णित् और (किति) कित् प्रत्यय परे होने पर (वृद्धि:) वृद्धि (न) नहीं होती है।
उदा०-ऐन्द्रावरुणम् । इन्द्र और वरुण जिसके देवता हैं वह हवि। मैत्रावरुणम् । मित्र और वरुण जिसके देवता हैं वह हवि ।
सिद्धि-ऐन्द्रावरुणम् । यहां प्रथम देवतावाची इन्द्र और वरुण शब्दों का चार्थे द्वन्द्वः' (२।२।२९) से. द्वन्द्वसमास है-इन्द्रश्च वरुणश्च तो इन्द्रावरुणौ। देवताद्वन्द्वे च (६।३।२६) से आनङ् आदेश होता है। तत्पश्चात् साऽस्य देवता' (४।१२४) से अण्' प्रत्यय है-इन्द्रावरुणो देवते अस्येति-ऐन्द्रावरुणम् । इस सूत्र से दीर्घान्त. 'इन्द्रा शब्द से परे वरुण' शब्द को आदिवृद्धि नहीं होती है। ऐसे ही-मैत्रावरुणम्।
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