SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तमाध्यायस्य तृतीयः पादः २३७ अर्थ:-देवतावाचिनां शब्दानां द्वन्द्वे समासे चाऽङ्गस्य पूर्वपदस्योत्तरपदस्य चाऽचामादेरच: स्थाने, तद्धिते जिति णिति किति च प्रत्यये परतो वृद्धिर्भवति। उदा०-अग्निमारुतीं पृश्निमालभेत (मै०सं० २।५ १७)। अग्निमारुतं कर्म। आर्यभाषा: अर्थ-(देवताद्वन्द्वे) देवतावाची शब्दों के द्वन्द्वसमास में (च) भी (अङ्गस्य) अग के (पूर्वपदस्य) पूर्वपद के और (उत्तरपदस्य) उत्तरपद के (अचाम्) अचों में से (आदे:) आदिम (अच:) अच् के स्थान में (ञ्णिति) मित्, णित् और (किति) कित् प्रत्यय परे होने पर (वृद्धि:) वृद्धि होती है। उदा०-अग्निमारुती पृश्निमालभेत (मै०सं० २।५।७)। अग्निमारुतं कर्म। सिद्धि-आग्निमारुतीम् । यहां प्रथम देवतावाची अग्नि और महत् शब्दों का द्वन्द्वसमास है-अग्निश्च मरुच्च तौ अग्निमरुतौ । तत्पश्चात्-सास्य देवता' (४।२।२४) से देवता-अर्थ में 'अण' प्रत्यय है-अग्निमरुतौ देवते अस्या इति-आग्निमारुती। इस सूत्र से देवतावाची अग्नि और मरुत् शब्दों को उभयपद वृद्धि होती है। 'इवृद्धौं' (६।३।२८) से 'अग्नि' शब्द को आनङ्-विषय में इकार आदेश और स्त्रीत्व-विवक्षा में टिडढाण' (४।१।१५) से डीप् प्रत्यय है। ऐसे ही-अग्निमारुतं कर्म । उक्तप्रतिषेधः _ (२२) नेन्द्रस्य परस्य ।२२। प०वि०-न अव्ययपदम्, इन्द्रस्य ६१ परस्य ६।१। अनु०-अङ्गस्य, वृद्धि:, अच:, णिति, तद्धितेषु, अचाम्, आदे:, किति, देवताद्वन्द्वे इति चानुवर्तते । अन्वय:-देवताद्वन्द्वे परस्येन्द्रस्याङ्गस्याऽचामादेरचस्तद्धिते णिति किति च वृद्धिर्न। ___ अर्थ:-देवतावाचिनां शब्दानां द्वन्द्वे समासे परस्येन्द्रस्याऽचामादेरच: स्थाने, तद्धिते निति णिति किति च प्रत्यये परतो वृद्धिर्न भवति। उदा०-सौमेन्द्र: । आग्नेन्द्रः।। आर्यभाषा: अर्थ-(देवताद्वन्द्वे) देवतावाची शब्दों के द्वन्द्वसमास में (परस्य) पर उत्तरपदवर्ती (इन्द्रस्य) इन्द्र इस (अङ्गस्य) अङ्ग के (अचाम्) अचों में से (आदे:) आदिम (अच:) अच् के स्थान में (वृद्धि:) वृद्धि (न) नहीं होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy