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पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
उदकशुद्ध। इहलोक । परलोक । सर्वलोक । सर्वपुरुष । सर्वभूमि । प्रयोग । परस्त्री । राजपुरुषात् ष्यनि । सूत्रनड । इति अनुशतिकादयः । ।
आर्यभाषाः अर्थ- (अनुशतिकादीनाम् ) अनुशतिक आदि (अङ्गानाम्) अङ्गों के ( पूर्वपदस्य) पूर्वपद और ( उत्तरपदस्य ) उत्तरपद के (अचाम्) अचों में से (आदेः) आदिम (अच: ) अच् के स्थान में ( तद्धिते ) तद्धित - संज्ञक (ञ्णिति) ञित्, णित् और (किति) कित् प्रत्यय परे होने पर (वृद्धि:) वृद्धि होती है।
उदा०
० - आनुशतिकम् । अनुशतिक सम्बन्धी कार्य । 'शुक्रनीति' (२1१/४४) के अनुसार सेना में शतानीक नामक अधिकारी का सहायक अनुशातिक कहलाता था । आनुहौडिक: । बेड़ा / नाव से विचरण करनेवाला । आनुसांवरणम् । सुरक्षा कोष में देय द्रव्य । आनुसांवत्सरिकः । संवत्सर में होनेवाला ।
सिद्धि - (१) आनुशतिकम् । यहां 'अनुशतिक' शब्द से 'तस्येदम्' ( ४ | ३ | १२० ) से इदम्-अर्थ में 'अण्' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'अनुशतिक' शब्द के पूर्वपद और उत्तरपद को आदिवृद्धि होती है।
(२) आनुहोडिकम् | यहां 'अनुहोड' शब्द से 'चरति' (४१४ I८) से चरति- अर्थ में 'ठक्' प्रत्यय है। सूत्र - कार्य पूर्ववत् है ।
(३) आनुसांवरणम् । यहां 'अनुसंवरण' से 'तत्र च दीयते कार्यं भववत्' (५1१1९५) से भववत् - अर्थ में 'ठक्' प्रत्यय है। सूत्र - कार्य पूर्ववत् है ।
(४) आनुसांवत्सरिकम् । यहां 'अनुसंवत्सर' शब्द से 'तत्र च दीयते कार्य भववत्' (५1१1९५) से भववत् अतिदेश होकर 'बह्वचोऽन्तोदात्ताट्ठञ्' (४ / ३ /६७) से भव-अर्थ में 'ठञ्' प्रत्यय है । सूत्र- कार्य पूर्ववत् है ।
उभयपदवृद्धिः
(२१) देवताद्वन्द्वे च ।२१ । प०वि०-देवताद्वन्द्वे ७।१ च अव्ययपदम् ।
सo - देवतानां द्वन्द्व इति देवताद्वन्द्वं:, तस्मिन् देवताद्वन्द्वे (षष्ठी - तत्पुरुषः) ।
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अनु० - अङ्गस्य, वृद्धि:, अचः ञ्णिति, तद्धितेषु, अचाम्, आदे:, किति, उत्तरपदस्य, पूर्वपदस्येति चानुवर्तते ।
अन्वयः-देवताद्वन्द्वे चाऽङ्गस्य पूर्वपदस्योत्तरपदस्य चाऽचामादेरचस्तद्धिते णिति किति च वृद्धि: ।
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