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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उत्तरपदवृद्धिः
(१५) संख्यायाः संवत्सरसंख्यस्य च।१५। प०वि०-संख्याया: ५।१ संवत्सर-संख्यस्य ६।१ च अव्ययपदम् ।
स०-संवत्सरश्च संख्या च एतयो: समाहार: संवत्सरसंख्यम्, तस्यसंवत्सरसंख्यस्य (समाहारद्वन्द्व:)।
अनु०-अङ्गस्य, वृद्धिः, अच:, णिति, तद्धितेषु, अचाम्, आदे:, किति, उत्तरपदस्येति चानुवर्तते।
अन्वयः-संख्याया: संवत्सरसंख्यस्याऽङ्गयोत्तरपदस्याचामादेरचस्तद्धिते ञ्णिति किति च वृद्धिः ।
अर्थ:-संख्यावाचिन: शब्दाद् उत्तरस्य संवत्सरशब्दस्य संख्यावाचिनश्चाङ्गस्योत्तरपदस्याचामादेरच: स्थाने, तद्धिते अिति णिति किति च प्रत्यये परतो वृद्धिर्भवति।
उदा०-(संवत्सर:) द्वौ संवत्सरावधीष्टो भृतो भूतो भावी वेति द्विसांवत्सरिकः । त्रिसांवत्सरिकः । (संख्या) द्वे षष्टी अधीष्टो भृतो भूतो भावी वेति द्विषाष्टिक: । द्विसाप्ततिकः । .. आर्यभाषा: अर्थ-(संख्यायाः) संख्यावाची शब्द से परे (संवत्सरसंख्यस्य) संवत्सर और संख्यावाची (अङ्गस्य) अङ्ग के (उत्तरपदस्य) उत्तरपद के (च) भी (अचाम्) अचों में से (आदे:) आदिम (अच:) अच् के स्थान में (तद्धिते) तद्धित-संज्ञक (ञ्णिति) जित्, णित् और (किति) कित् प्रत्यय परे होने पर (वृद्धि:) वृद्धि होती है।
उदा०-(संवत्सर) द्विसांवत्सरिकः । दो संवत्सर तक अधीष्ट सत्कृत (आचार्य), भृत, भूत व भावी कार्य। त्रिसांवत्सरिकः । तीन संवत्सर तक अधीष्ट-सत्कृत (आचार्य), भृत, भूत व भावी कार्य। (संख्या) द्विषाष्टिकः । २+६०-६२ वर्ष तक अधीष्ट, भृत, भूत व भावी कार्य। द्विसाप्ततिकः । २+७०-७२ वर्ष तक अधीष्ट, भृत, भूत व भावी कार्य।
सिद्धि-द्विसांवत्सरिकः । यहां द्वि' और 'संवत्सर' शब्दों का तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च' (२।१।५१) से तद्धितार्थ में कर्मधारयतत्पुरुष समास है। 'तमधीष्टो भृतो भूतो भावी (५।
१७९) से अधीष्ट-आदि अर्थों में ठञ्' प्रत्यय है। इस सूत्र से संवत्सर उत्तरपद को आदिवृद्धि होती है। ऐसे ही-त्रिसांवत्सरिक: । द्विषाष्टिकः । त्रिसाप्तिकः । द्विषष्टि आदि शब्द संख्येय वर्ष अर्थ के वाचक हैं, अत: इससे काल-अधिकार में विहित पूर्ववत् ठञ्' प्रत्यय होता है।
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