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________________ २२५ सप्तमाध्यायस्य तृतीयः पादः उदा०-पूर्ववार्षिकम् । अपरवार्षिकम् । पूर्वहैमनम्। अपरहैमनम्। आर्यभाषा: अर्थ-(उत्तरपदस्य) उत्तरपदस्य' यह अधिकार-सूत्र है। पाणिनि मुनि हनस्तोऽचिण्णलो:' (७।३।३२) इस सूत्र से पहले-पहले जो इससे आगे कहेंगे वह उत्तरपद' को होता है, ऐसा जानें। जैसे कि पाणिनि मुनि कहेंगे-'अवयवादतो:' (७।३।११) अर्थात् अवयववाची पद से परे ऋतुवाची उत्तरपद के अचों में से आदिम अच् को तद्धित जित्, णित् और कित् प्रत्यय परे होने पर वृद्धि होती है। ___ उदा०-पूर्ववार्षिकम् । वर्षा ऋतु के पूर्व भाग में होनेवाला। अपरवार्षिकम् । वर्षा ऋतु के अपर-पश्चिम भाग में होनेवाला। पूर्वहैमनम् । हेमन्त ऋतु के पूर्व भाग में होनेवाला। अपरहैमनम् । हेमन्त ऋतु के अपर पश्चिम भाग में होनेवाला। सिद्धि- पूर्ववार्षिकम्' आदि पदों की सिद्धि आगे यथास्थान लिखी जायेगी। उत्तरपदवृद्धिः (११) अवयवादृतोः।११। प०वि०-अवयवात् ५ १ ऋतो: ५।१। अनु०-अङ्गस्य, वृद्धि:, अच:, णिति, तद्धितेषु, अचाम्, आदे:, किति, उत्तरपदस्य इति चानुवर्तते । अन्वय:-अवयवाद् ऋतोरङ्गस्योत्तरपदस्याचामादेरचस्तद्धिते णिति किति च वृद्धिः। अर्थ:-अवयववाचिन: पूर्वपदाद् उत्तरस्य ऋतुवाचिनोऽङ्गस्य उत्तरपदस्याऽचामादेरच: स्थाने, निति णिति किति च प्रत्यये परतो वृद्धिर्भवति। उदा०-पूर्वं वर्षाणामिति पूर्ववर्षाः । पूर्ववर्षासु भवमिति पूर्ववार्षिकम् । अपरं वर्षाणामिति अपरवर्षाः । अपरवर्षासु भवमिति अपरवार्षिकम् । पूर्व हेमन्तस्येति पूर्वहमन्तम् । पूर्वहमन्ते भवमिति पूर्वहैमनम् । अपरं हेमन्तस्येति अपरहेमन्तम् । अपरहेमन्ते भवमिति अपरहैमनम्। आर्यभाषा: अर्थ-(अवयवात्) अवयववाची पूर्वपद से परे (ऋतो:) ऋतुवाची (अङ्गस्य) अङ्ग के (उत्तरपदस्य) उत्तरपद के (अचाम्) अचों में से (आदे:) आदिम (अच:) अच् के स्थान में (गिति) जित्, णित् और (किति) कित् प्रत्यय परे होने पर (वृद्धि:) वृद्धि होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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