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________________ २२४ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उक्तप्रतिषेध-विकल्पः (६) पदान्तस्यान्यतरस्याम्।६। प०वि०-पदान्तस्य ६।१ अन्यतरस्याम् अव्ययपदम् । स०-पदशब्दोऽन्ते यस्य स पदान्त:, तस्य-पदान्तस्य (बहुव्रीहि:)। अनु०-अङ्गस्य, न, श्वादेरिति चानुवर्तते। अन्वय:-पदान्तस्य श्वादेरङ्गस्य यदुक्तं तदन्यतरस्यां न। अर्थ:-पदशब्दान्तस्य श्वादेरङ्गस्य यदुक्तं तद् विकल्पेन न भवति । उदा०-शुन इव पदमस्येति श्वपदः, श्वपदस्येदमिति श्वापदम्, शौवापदम्। __ आर्यभाषा: अर्थ-(पदान्तस्य) पद शब्द जिसके अन्त में है और (स्वादे:) श्वा शब्द जिसके आदि में है उस (अगस्य) अङ्ग को जो इस प्रकरण में विधान किया गया है वह कार्य (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (न) नहीं होता है। उदा०-श्वापदम्, शौवापदम् । श्वा (कुत्ता) के समान पदचिह्न है जिसका वह प्राणी 'श्वपद' कहाता है। श्वपद का सम्बन्धी-श्वापद अथवा शौवापद। शौवापद' शब्द में 'अन्येषामपि दृश्यते' (६।३।१३७) से दीर्घ है।। सिद्धि-श्वापदम् । यहां प्रथम श्वन् और पद शब्दों का 'अनेकमन्यपदार्थे' (२।२।२४) से बहुव्रीहि समास है। तत्पश्चात् श्वपद' शब्द से तस्येदम्' (४।३।१२०) से इदम्-अर्थ में 'अण्' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'न य्वाभ्यां पदान्ताभ्यां पूर्वी तु ताभ्यामैच (७।३।३) से प्राप्त वृद्धि का प्रतिषेध नहीं होता है और ऐच् आगम भी नहीं होता है। विकल्प-पक्ष में ऐच् (औ) आगम है-शौवापदम् । 'श्वापद' शब्द में वार्तिककार कात्यायन के मत में वा०-'शुनो दन्तदंष्ट्राकर्णकुन्दवराहपुच्छपदेषु' (६ ।३।१३७) से दीर्घ होता है। {उत्तरपदवृद्धिः } अधिकार: __ (१०) उत्तरपदस्य।१०। वि०-उत्तरपदस्य ६।१।। अर्थ:-उत्तरपदस्य इत्यधिकारोऽयम्। 'हनस्तोऽचिण्णलो:' (७।३।३२) प्रागेतस्माद् यदितोऽग्रे वक्ष्यति 'उत्तरपदस्य' इत्येवं तद् वेदितव्यम्। यथा वक्ष्यति-'अवयवादतो:' (७।३।११) इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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