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सप्तमाध्यायस्य तृतीयः पादः
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सिद्धि - (१) स्वागतिकः । यहां 'स्वागत' शब्द से वा०- 'आहौ प्रभूतादिभ्यः' (४|४|१) से आह-अर्थ में 'ठक्' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'न य्वाभ्यां पदान्ताभ्यां पूर्वी ताभ्यामैच्' (७ 1३1३) से प्राप्त वृद्धि का प्रतिषेध नहीं होता है और ऐच् आगम नहीं होता है ।
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(२) स्वाध्वरिकः | यहां 'स्वध्वर' शब्द से 'चरति (४/४/८) से चरति- अर्थ में 'ठक्' प्रत्यय है। सूत्र - कार्य पूर्ववत् है । ऐसे ही 'व्यवहार' शब्द से - व्यावहारिकः ।
(३) स्वाङ्गिः | यहां 'स्वङ्ग' शब्द से 'अत इञ्' (४1९1९५) से अपत्य-अर्थ में 'इञ्' प्रत्यय है। सूत्र - कार्य पूर्ववत् है। ऐसे ही 'व्यङ्ग' शब्द से - व्याङ्गि, 'व्यड' शब्द से-व्याडि: ।
(४) स्वापतेय: । यहां स्वपति' शब्द से 'पथ्यतिथिवसतिस्वपतेर्दञ्' (४।४1९०४) से चरति-अर्थ में 'ढञ्' प्रत्यय है । सूत्र- कार्य पूर्ववत् है ।
उक्तप्रतिषेधः
(८) श्वादेरिञि | ८ |
प०वि० - श्वादे: ६ |१ इञि ७ । १ ।
स० - श्वा आदिर्यस्य स श्वादि:, तस्य - श्वादे: (बहुव्रीहि: ) । अनु०-अङ्गस्य, नेति चानुवर्तते ।
अन्वयः - श्वादेरङ्गस्य इञि यदुक्तं तन्न ।
अर्थ :- श्वादेरङ्गस्य इञि प्रत्यये परतो यदुक्तं तन्न भवति । उदा०-श्वभस्त्रस्यापत्यमिति श्वाभस्त्रिः । श्वादंष्ट्रिः ।
आर्यभाषाः अर्थ- (श्वादेः) श्वा जिसके आदि में है, उस (अङ्ग्ङ्गस्य) अङ्ग को (इञि) इञ् प्रत्यय-परे होने पर जो इस प्रकरण में विधान किया गया है वह कार्य (न) नहीं होता है।
उदा० - श्वाभस्त्रिः । श्वभस्त्र का पुत्र । श्वादंष्ट्रिः । श्वदंष्ट्र का पुत्र ।
सिद्धि-श्वाभस्त्रिः । यहां 'श्वभस्त्र' शब्द से 'अत इञ्' (४ 1१1९५ ) से अपत्यअर्थ में 'इज्' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'न य्वाभ्यां पदान्ताभ्यां पूर्वौ तु ताभ्यामैच्' ( ७ 1३1३) से प्राप्त वृद्धि का प्रतिषेध नहीं होता है और ऐच् आगम भी नहीं होता है। ऐसे ही 'श्वदंष्ट्र' शब्द से श्वादंष्ट्रिः ।
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